जाने मन्त्र - विद्या के प्रमुख सिद्धांत

Hindi Kavita
mantra-vidhya

मन्त्र - विद्या: प्रमुख सिद्धांत

मन्त्रों की रचना-प्रक्रिया :

मन्त्र - विद्या का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है। लगभग उतना ही, जितना मानव-सभ्यता का । मन्त्रों से सम्बन्धित ग्रन्थों की संख्या जानकर आश्चर्य होता है। केवल इसी एक विषय – मन्त्र शास्त्र पर इतना विपुल साहित्य सृजित हुआ कि जानकर उन मनीषियों और रचनाकारों के प्रति, मस्तक बद्धा से झुक जाता है।

जैसे मेधावी और अति मानव अब कहाँ हैं ? उस तथाकथित 'असभ्य और बर्बर युग में उन्होंने जिन मन्त्र-ग्रन्थों का प्रणयन किया था, उनकी विशालता, विषय-वस्तु ओर अर्थ-गाम्भीर्य की व्याख्या कर सकने वाले विद्वान भी बाज नहीं है। ज्ञान और विद्वता के कोषागार के ग्रन्थ आज भी अधिकांशतः जटिल और दुर्बोध हैं। खेद है कि अनेक ग्रन्थों के केवल नाम मिलते हैं, उनकी प्रति दुर्लभ ( अलभ्य ) हो गई हैं और जो ग्रन्थ प्राप्य हैं उनमें कई एक की भाषा इतनी जटिल, प्रतीकात्मक और सांकेतिक है कि आज के प्रकाण्ड मन्त्रज्ञ और धुरन्धर भाषाविद् भी उनकी संदिग्ध व् नहीं कर पा रहे। निश्चित ही, उन ग्रन्थों के प्रणवन में रचनाकारों ने जान-बूझकर गोपनीयता की भावना से, बैसी जटिल भाषा शैली का प्रयोग किया होगा, कारण कि वे मन्त्र-विद्या को सर्व-साधारण के लिए प्रयोगनीय नहीं मानते थे। उनकी धारणा थी कि मन्त्र-साधक को मानसिकता कुछ विशेष प्रकार की होना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में उन्होंने मन्त्र-विद्या-साधक की पात्रता, उसकी योग्यता पर बहुत जागरूक होकर, बड़ी कठोरता से विचार किया था।


मन्त्र-निर्माण कोई सहज क्रिया नहीं थी। वर्षों के श्रम और अनुभव के पश्चात् ही मनीषीगण किसी सिद्धान्त की प्रतिस्थापना करते थे। विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का अनुशीलन करने के बाद, किन्हीं विशिष्ट ध्वनियों को जब उन्होंने किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति में सक्षम पाया होगा, किसी ध्वनि विशेष का कोई विशिष्ट प्रभाव देखा होगा तभी उसको मन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया होगा प्रयोग और परिणाम से पूर्णतया आश्वस्त होकर ही उन्होंने उस ध्वनि को 'मन्त्र' की संज्ञा दी होगी। मन्त्र-गठन के समय वे ध्वनि-विज्ञान वेत्ता महर्षि इस ओर निरस्तर सजग रहते थे कि जिस मन्त्र की, जिस प्रयोजन के निमित्त रचना की जाय, वह उसी से सम्बन्धित स्नायुओं और यौगिक प्रस्थियो को सक्रिय करे। आज के राकेट, राडार और ग्रह से भी अधिक सूक्ष्म रचना प्रणाली का उपयोग उन मन्त्रों के सृजन में किया जाता था ।


मन्त्र रचना की प्रक्रिया कितनी जटिल होती थी, इस विषय पर प्रकाश डालते हुए सुप्रसिद्ध पाश्वात्य विद्वान श्री कबर्न लिखते हैं संस्कृत भाषा के 'अक्षरों' में भाव और अर्थ दोनों ही निहित होते हैं।


युक्तिपूर्वक उन अक्षरों को गठित करके चमत्कारी प्रभाव की अनुभूति की जा सकती है ।

(nextPage)

प्रभावशीलता का आधार ।

कोई मन्त्र तभी सफल और प्रभावी होता है, जब उसका उच्चारण शुद्ध हो । अशुद्ध उच्चारण से ध्वनि-व्यतिक्रम उत्पन्न होता है, जो मन्त्र के प्रभाव को खण्डित कर देता है। रेडियो और टी० वी० का समुचित लाभ उठाने के लिए उसके ट्यून, वाल्यूम, साउण्ड - ऐरियल और स्वीकर संरचना में जितनी निर्दोषिता आवश्यक है, उससे कहीं अधिक सूक्ष्मता और सतर्कता मन्त्रोच्चारण में अपेक्षित होती है। नाम मात्र का असन्तुलन भी समस्त साधना को भ्रष्ट करके घातक परिणाम देने वाला बन जाता है। परिणाम न हो, तो भी मन्त्र-साधना तो व्यर्थ हो ही जाती है।


शुद्ध उच्चारण के अतिरिक्त और भी कुछ ऐसे अपरिहार्य नियम हैं, जो मन्त्र सिद्धि के प्रमुख आधार माने जाते हैं। साधक को उन सबसे अवश्य ही परिचित होना चाहिए। व्यवहारिक जीवन में भी हम देखते है कि कोई भी कार्य हो, उसके लिए एक विधि-विधान अवश्य ही निर्धारित है। नियमबद्धता और तदनुकूल क्रिया ही उस कार्य को सफल बनाता है। इसी प्रकार मन्त्र-साधना में भी नियमों की प्रतिबद्धता अनिवार्य है। उद्देश्य के अनुरूप मन्त्र का निर्णय उस मन्त्र का जप विधान, प्रयोजनीय सामग्री, स्थान, जप-संख्या, साधक का वैयक्तिक रहन-सहन, यह सब भली-भांति समझकर ही मन्त्र-साधना में प्रवृत्त होना चाहिए। यह स्पष्टता एक प्रकार की तपश्चर्या है, जिसमें भौतिक सुखों का परित्याग करना ही पड़ता है।


आज के युग में उपक्ति को मन्त्र-साधना का लाभ इसलिए नहीं मिल रहा कि वह पोर स्वार्थी, प्रमादी, अस्थिर बुद्धि, नैतिकता से परे और अहग्रस्त होता जा रहा है। विलास-प्रियता उसके रोम-रोम में व्याप्त है। धीरज, संयम, विवेक और समृष्टि से उसे वितृष्णा है । वह चञ्चलमन, अविश्वासी, अश्रद्धालु और नास्तिक हो गया है। स्वाग-तपस्या तो दूर की बात है, वह अपने घर में बैठकर भी शान्त-चित्त होकर पाँच मिनट ध्यान-धारणा नहीं कर सकता। उसको मानसिकता दूषित हो गई है। वह व्यवसायी हो गया है। पैसा देकर सब-कुछ खरीद लेना चाहता है। वह 'रेडीमेड' का समर्थक है, किसी की कमाई हुई रकम अनायास मिलने, होटल में बना बनाया भोजन कर लेने, बाजार से सिले सिलाये कपड़े लेकर पहन लेने में ही जीवन की पूर्ण सफलता देख रहा है। उसकी रक्त-शिराओं में 'शीघ्रतावाद' की ऊर्जा प्रवाहित है। क्या इन सबसे यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि सभ्य मानव वस्तुतः मानसिक रूप में विक्षिप्त है, कर्म क्षेत्र में निष्क्रिय है, धैर्य के क्षेत्र में पलायनवादी है और अध्यात्म जैसे गम्भीर, शाश्वत कल्याणकर विषयों को 'पाखण्ड' अथवा 'जङ्गली पन' कहने में हो स्वयं को गौरवान्वित समझता है।


तो, ऐसी मानसिकता का ऐसे वातावरण और परिवेश का 'सभ्यता-सम्पन्न मानव मन्त्र-साधना त्यागपूर्ण, संयम प्रतिवन्धित और कष्टसाध्य स्थिति को कैसे स्वीकार कर सकता है ? विकृत मनोदशा और राजनीतिक षड्यन्त्रों से उत्पन्न अरा जनता की स्थिति में धर्म, दर्शन, योग, अध्यात्म और तन्त्र-मन्त्र की ओर से विमुख हो जाना, मानव स्वभाव की सहज प्रतिक्रिया है।


किन्तु यह सारे व्यवधान होते हुए भी, इन विसङ्गतियों के घटाटोप में भी, मन्त्र-विद्या लुप्त नहीं हुई। वह आज भी अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे है। और, अब तो ( इधर की लगभग तीन दशाब्दियों से ) उसका पुनर्जागरण काल आया प्रतीत हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से विश्व में भारतीय अध्यात्म-दर्शन के प्रति बढ़ती हुई जनरुचि को देखकर निश्चित रूपेण कहा जा सकता है कि विश्व मानव की चेतना ने अंगड़ाई ली है और वह भौतिकता के मोहपाश की यथार्थता को समझ कर अध्यात्म की ओर उम्मुख होने लगी है।

(nextPage)

गुरु का महत्व:

मन्त्र ही नहीं, किसी भी विषय की साधना करने, किसी भी क्षेत्र के ज्ञाना जंन हेतु, गुरु की महती और सर्वप्रथम आवश्यकता होती है। पुस्तकों में पढ़कर हम भले ही पर्याप्त जानकारी करलें, पर गुरु की वाणी- प्रत्यक्ष निर्देश, व्यवहारिक परामर्श और उसके दर्शन सामोप्य का कुछ ऐसा प्रभाव होगा है, जो संसार के समस्त ग्रन्थों को एकत्र करने पर भी प्राप्त नहीं हो सकता। यही कारण है कि साधना क्षेत्र में गुरु को ईश्वर तुल्य कहा गया है। अतः मन्त्र-साधना के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी योग्य गुरू से दीक्षा ग्रहण करके ही, इस मार्ग पर अग्रसर हो ।


'गुरु शब्द की व्याख्या में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ लिखा है। इसके अनेक अर्थ और संकेत होते हैं। उन सबका सारांश यही है कि गुरु वह व्यक्ति होता है, जो ज्ञान-मार्ग का दिशा-निर्देश करता है । मन्त्र-साधना के सन्दर्भ में हम 'गुरु' शब्द का आशय उस मिद्ध-पुरुष से लेते हैं, जिसने कठिन साधना करके अनुभव प्राप्त किया हो, जो अध्यात्म का मर्मज्ञ हो और दूसरों को प्रकाश दे सके । यद्यपि वर्तमान युग में ऐसे पूज्यनीय गुरु सहज नहीं प्राप्त होते, तब भी उनका नितान्त अभाव नहीं कहा जा सकता । श्रद्धावान भक्त यदि खोज करें तो कहीं-न-कहीं को दिव्य विभूति मिल ही जाती है। शास्त्रकारों ने विकल्प रूप में सुझाया है कि यदि प्रयास करने पर भी कोई सद्गुरु नहीं मिल रहा, तो भगवान शिवजी को मन-ही-मन गुरु-रूप में स्वीकार करके, साधना प्रारम्भ की जा सकती है। किन्तु ऐसी स्थिति में साधक को अध्ययनशील अवश्य होना चाहिए, ताकि वह ग्रन्थों के माध्यम से अपना मार्ग प्रशस्त कर सके ।


यह आवश्यक नहीं है कि जिसे हम गुरु बनाने जा रहे हैं वह कोई गुहावासी सन्त हो, श्मशान-सेवी अघोरी हो अथवा किसी मठका महन्त हो । नहीं, वह इनमें से किसी वर्ग का हो अथवा सामान्य गृहस्थ हो, उसमें श्रेष्ठ गुरु की योग्यता तथा उसके लक्षण पाये जाने चाहिएं। कभी-कभी ऐसे महापुरुष दीख पड़ते हैं, जो बाह्य रूप में बड़े भव्य, शोभन और देवावतार प्रतीत होते हैं, किन्तु आचरण, विचार और साधना की कसौटी पर उनका सर्वथा विपरीत रूप में दृष्टिगत होता है। दूसरी ओर कभी-कभी ऐसे सन्त भी दीख जाते हैं, जो बाह्य रूप में अत्यधिक मलिन, रूक्ष, सामान्य अथवा कुरूप दीख पड़ते हैं, पर उनका अन्तःकरण देवोपम होता है और वे अद्भुत ज्ञानशक्ति के भण्डार होते हैं।


गुरु की खोज में यदि साधकजन निम्नांकित संकेतों को ध्यान में रखें, तो उन्हें सरलता से अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है : सरल


  • जिसे गुरु बनाने की इच्छा कर रहे हैं वह शान्तचित्त, सदाचारी और सरल सत्य- प्रिय ब्राह्मण हो ।

  • वह ब्राह्मण विचारों से आस्तिक, स्वदेशवासी, दैनिक रूप में पूजा-अर्चना करने वाला और वर्णाश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत किसी आश्रम में रहकर तदनुकूल चर्या करता हो ।

  • वह व्यक्ति सहज-सरल जीवन में आस्था रखता हो। क्रोध, लोभ, द्वप और पाखण्ड से उसको सर्वथा दूर होना चाहिए। भौतिकता के प्रति जितना निर्लिप्त हो, वह उतना ही श्रेष्ठ गुरु सिद्ध होता है । 

  • अपने व्यवहारिक जीवन में वह समाज अथवा राजनीति-जन्य कुत्सा, लांछन और षड़यन्त्रों से सदा दूर रहता हो ।

  • चन्चलता, शृंगार, विलास, आडम्बर और चारित्रिक-दुर्बलता से उसे मुक्त, निविकार, निष्कलुष होना चाहिए।

  • कुलीन ब्राह्मण, विनयशील, नम्र, जागरूक, मेधावी, आस्थावान, विवेकशील, परोपकारी और ग्रहणशक्ति से सम्पन्न हो ।

  • लोकहित की भावना से युक्त इन्द्रिय-निग्रह में समर्थ, अध्येता, आश्रम निष्ठ, स्थिरचित और मधुरभाषी हो । 


उपरोक्त गुणों से युक्त व्यक्ति को गुरु बनाने से साधक को समय-समय पर यथेष्ट सम्बल प्राप्त होता है। साधना काल में कोई विघ्न अथवा समस्या उसे एका एक परास्त नहीं कर पाती ।

(nextPage)

इस प्रसङ्ग में कुछ उन दोषों का भी वर्णन किया जा रहा है, जिनके रहते कोई व्यक्ति श्रेष्ठ गुरु सिद्ध नहीं हो सकता। साधक को चाहिए कि वह उपयुक्त गुणों के सन्दर्भ में यह भी देखता रहे कि कहीं उस व्यक्ति में कोई अवगुण तो नहीं हैं ? वैसे, यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि सद्प्रवृत्ति के मनुष्य, दुष्टता दुर्गुण से मुक्त होते हैं, फिर भी संसार में किसी सम्भावना से अस्वीकार नहीं किया जा सकता । अस्तु, निम्नलिखित त्याज्य लक्षणों से युक्त मनुष्य वह चाहे जितना पहुँचा हुआ सन्त दीख रहा हो, गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के योग्य नहीं होता ।


  • रोगी- रुग्ण शरीर वाले व्यक्ति का मन भी अवश्य ही रुग्ण होता है। 

  • कपटाचारी- छल छ्प और पाखण्ड वाला, आडम्बर-सेवी ।

  • विकृताङ्ग-पंगु, लूले- लँगड़े, अन्धे, छिन्नाङ्ग ।

  • अधिकाङ्क्ष – किसी भी अङ्ग की अधिकता से युक्त-अङ्ग ।

  • होनाङ्ग - जिसका एक अङ्ग नष्ट हो एक अख वाला, एक हाथ पैर वाला |

  • श्वेतवर्णी- बिस्कुल सफेद रङ्ग वाला, श्वेत कुष्ठ से ग्रस्त । 

  • दोघं-भोजी- अधिक भोजन करने वाला, बहु-आहारी ।

  • लम्पट, विषयी, अभिणप्त, अनर्गल प्रलाप करने वाला, अतिवादी, विवाद प्रिय, धूतं, आस्था रहित, पूजा-पाठ से विमुख, गुरु-निन्दक, द्वेषी, ईर्ष्यालु, मूर्ख, अज्ञात फुल-परिवार का सदस्य, अहङ्कार से युक्त कुरूप, भयानक, घृणास्पद, काले-पीले दांतों वाला, टूटे-फटे नखों से युक्त, नेत्र-विकार से ग्रस्त । कठोर स्वभाव, पर-पीड़क, कर्कश वाणी, हिंसक मनोवृत्ति, स्त्री-चर्या और धन-सम्पत्ति में रुचि रखने वाला, संग्रही, अपराधी और अराजकता का आचरण करने वाला ।


उपर्युक्त दोषों के सम्बन्ध में मनीषियों ने बताया है कि प्राय: इस प्रकार के कुलक्षण व्यक्ति को उसके कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होते हैं और किसी-किसी पर कुछ अन्य कारण भी दोष के रूप में छा जाते हैं, जैसे वंशानुगत दोष, किसी के द्वारा किये गये अभिचार कर्म का प्रभाव, अभिशाप ( देवता, ब्राह्मण, बालक, अनाथ अथवा स्त्री का ) आदि । अस्तु, उपरोक्त दोषों से ग्रस्त मनुष्य को नारकीय अथवा पिशाच वर्ग का प्राणी माना जाता है। सामान्यतः दैनिक जीवन में भी ऐसे लोग घृणा और उपेक्षा के पात्र होते हैं. कोई उन्हें सम्पर्क में नहीं आने देना चाहता। ऐसी स्थिति में उन्हें गुरु बनाने की कल्पना ही असङ्गत है।


दीक्षा


दीक्षा का आशय है. गुरुद्वारा मन्त्रोपदेश साधना के सम्बन्ध में आवश्यक बातें ज्ञातव्य तथ्य और सावधानी के संकेत हमें गुरु से ही प्राप्त होते हैं। यह समस्त प्रशिक्षण, गुरु स्वयं ही दीक्षा के बाद हमें प्रदान करता है। वह साधक को शारीरिक, मानसिक तथा अन्य परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए, उसके हित में यथोचित निर्देश देता है। गुरु के अभाव में कभी-कभी भयङ्कर समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। साधना काल में अनेक प्रकार के भौतिक और वायवो विघ्न उपद्रव करते हैं। गुरु द्वारा दीक्षित साधक को ऐसे अवसरों में कोई भय नहीं रहता, कारण कि दीक्षा के समय गुरु उसे पूर्णतया सबल बना देता है। वैसे भी गुरु की कृपा - छाया की भाँति साधक की रक्षा करती है ।

(nextPage)

दीक्षा-प्राप्ति का मुहूर्त :


मुहूर्त का सामान्य अर्थ है- कालखण्ड विशेष भाव यह है कि जिस समय ( अहोरात्र ) का एक विशिष्ट अंश मुहूर्त कहलाता है। यों, समय का प्रत्येक अश ( प्रहर, घड़ी, पल ) मुहूर्त है, पर प्रत्येक मुहूर्त प्रत्येक कार्य के लिए अनुकुल नहीं होता ।


आकाश में स्थित तारे, नक्षत्र, राशियाँ और ग्रह भू-मण्डल से जितनी दूर जहाँ जब रहते हैं उसी अनुपात से उनसे निःसृत किरणों का प्रतिफल और परावर्तन सृष्टि को प्रभावित करता है। यह प्रभाव प्रत्येक जड़ और चेतन पर आन्तरिक तथा बाह्य, दोनों रूपों में पड़ता है। मुहतं की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता की पृष्ठभूमि में यही खगोलीय प्रभाव क्रियाशील होता है। एक कालखण्ड में प्रारम्भ किया गया कार्य निर्विघ्न पूरा हो जाता है, दूसरे में वही कार्य, उसी विधि से करने पर भी असफल, विकृत और दुःखदायक हो सकता है। इसी परिणाम-भेद को शुभ और अशुभ की संज्ञा दी गई है। किस कार्य के लिए कौन-सा कालखण्ड, कौन-सा मुहूर्त अनुकूल रहेगा, इसका निर्णय करने में, मनीषियों ने वर्षों तक अथक श्रम किया है। आजीवन शोध करने के बाद, बल्कि कभी-कभी तो पीढ़ियों के बाद, ऐसे सिद्धान्तों की रचना की गई है। आज का समय, विज्ञान अर्थात् ज्योतिष शास्त्र मुख्यतः इस बिन्दु का विस्तृत रूप है। अस्तु, दीक्षा-प्राप्ति के लिए शुभ योग अर्बाद अनुकूल मुहूर्त का होना परम आवश्यक है। मुहूर्त की मीमांसा करते हुए प्राचीन आचार्यों ने दीक्षा-प्राप्ति हेतु निम्न- लिखित कालखण्डों का निर्देश दिया है


महीना - दीक्षा प्राप्ति के लिए मल-मास, भादों और पूस के महीने सबंधा वजित हैं, कारण कि इनमें व्यक्ति मानसिक रूप में स्वस्थ और शुद्ध नहीं रहता । जहाँ तक श्रेष्ठ महीनों का प्रश्न है, क्वार और कार्तिक के महीने अच्छे रहते हैं। अगहन और फाल्गुन मध्यम श्रेणियों में हैं और आपाड़ निम्न कोटि में आता है।


पक्ष- अध्यात्मिक लाभ के उद्देश्य से साधक को चाहिए कि वह कृष्णपक्ष में दीक्षा ग्रहण करे। इसके प्रभाव से वह ज्ञान और ईश्वर-सामीप्य प्राप्त कर सकता है। भौतिक सुख अर्थात् सांसारिक सिद्धियां प्राप्त करने के लिए शुक्लपक्ष में ली गई दीक्षा अधिक लाभप्रद होती है।


इस वर्गीकरण का आधार पृथ्वी के सर्वाधिक निकटस्य चन्द्रमा ग्रह का रश्मि पुब्ज है, जो पन्द्रह दिनों तक क्रमशः बढ़ता जाता है और फिर पन्द्रह दिनों तक उसी गति से घटता रहता है। अन्धकार और प्रकाश को परिवर्तनशील प्राकृतिक व्यवस्था का प्रभाव मानव के मन मस्तिष्क पर स्थायी रूप से छाया रहता है।


तिथि - प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियाँ होती हैं- प्रत्येक दिन की एक तिथि । चन्द्र कलाओं के परिवर्तन से विकिरणजन्य तत्व समस्त वायुमण्डल और प्राणि-जगत को प्रभावित करते हैं। मानव-मन पर चन्द्रमा का प्रभाव सर्वाधिक रहता है, अतः दीक्षा ग्रहण हेतु, उस प्रभाव क्रम को वरीयता देते हुए ये तिथियाँ अनुकूल मानी गई हैं- द्वितीया, पञ्चमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा ।


दिन- मास, पक्ष और तिथि के साथ दिन की सङ्गति भी आवश्यक होती है। मङ्गल और शनि के दिन दीक्षा हेतु वर्जित हैं। शुभ दिनों के क्रम में रवि, सोम, बुध, गुरु और शुक्रवार को स्वीकृति प्रदान की गई है।


लग्न - कालखण्ड की यह महत्वपूर्ण इकाई है। प्रत्येक कार्य में इसको बरी यता दी जाती है। प्राणो (मनुष्य) की जन्म लग्न का प्रभाव उस पर आजीवन रहता है, यह सत्य अब भौतिक विज्ञानियों ने भी अकाट्य रूप में स्वीकार कर लिया है। मेष, कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुम्भ-ये लग्ने उत्तम कही गई हैं, शेष में दीक्षा लेना वर्जित है, कारण कि वे मन्द और प्रतिकूल होती हैं।


नक्षत्र - पुष्य नक्षत्र सर्वश्रेष्ठ होता है। उसके अभाव में हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराशदा, उत्तरा भाद्रा श्रवण, आर्द्रा, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र अनुकूल माने जाते हैं ।


इस काल- विवेचन में गदि साधक को असुविधा हो, तो वह किसी भी स्थानीय ज्योतिषी, पण्डित से पूछ सकता है। वे लोग पञ्चाङ्ग के सहारे बड़ी सरलता से ऐसा अनुकूल योग बता देते हैं।


अपवाद स्वरूप कुछ अवसर विशेष सर्व शुद्ध और सदा प्रभावी माने जाते हैं। उन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वे जब भी हो, समस्त योगों की अनुकूलता अपने के केन्द्रित रखते हैं। सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण के दिन ऐसे ही विशिष्ट योग हैं। इसी प्रकार भादों की पष्ठी, क्वार की त्रयोदशी (कृष्ण), कार्तिक की नवमी ( शुक्ल) और सावन की पञ्चमी (कृष्ण) सर्वथा शुभ तिथियाँ हैं।

(nextPage)

दीक्षा में मुहूर्त-प्रभाव


मास - विवेचन - चैत्र मास में दीक्षा लेना सिद्धि दायक होता है। ध्यान रहे


कि यह लाभ केवल 'गोपाल-मन्त्र' तक ही सीमित है, अतः चैत्र में केवल यही मन्त्र लें। बैशख में ली गई दीक्षा धन-दायक होती है, किन्तु ज्येष्ठ का मन्त्र मृत्यु-योग भी सृष्टि करता है। आषाढ़ का प्रभाव कुटुम्ब-हानि, सावन का दीर्घायु, भादर्दी का सन्तान नाश, क्वार का रत्न-लाभ, कार्तिक- अगहन का मन्त्र-सिद्धि और पूस का प्रभाव र विरोध देता है। माघ में लो गई दीक्षा बुद्धि-वैभव देती है और फाल्गुन का प्रभाव मनोरथ पूरक माना गया है।


विशेष-विवेचन- रविवार का प्रभाव धन-लाभ करता है, सोमवार शान्ति दाता है, मङ्गल आयु-क्षय करता है और बुद्ध सम्पत्ति वर्धक है। गुरु का फल ज्ञान धंन करता है. शुक्र का प्रभाव सौभाग्य-नाशक (दुर्भाग्यकारी) और शनि का कलङ्क दायक कहा गया है।


तिथि - विवेचन- प्रतिपदा के दिन ली गई दीक्षा उस तिथि के प्रभाव से ज्ञान नाश करती है, दूज-तीज का प्रभाव ज्ञान तथा शील की वृद्धि करता है। चतुर्थी में धन-नाश, पञ्चमी में बौद्धिक प्रगति, छठ में बुद्धि भ्रष्टता और रुप्मी में सुख वृद्धि का प्रभाव निहित रहता है। अष्टमी मानसिक शान्ति को नष्ट करती है, नवमी रोग-बद्धक है और दशमी राज सम्मान देती है। एकादशी में शुचिता, द्वादशों में सर्व-सिद्धि, तेरस में दारिद्रय, चौदस में पक्षी-योनि, अमावस में कार्य-विघ्न और पूर्णिमा में धर्म वृद्धि का प्रभाव रहता है। अतः गुरु तथा शिष्य दोनों को इन तथ्यों की और विशेष सजग रहना चाहिए।


मतान्तर :


जन सामान्य की सुविधा के लिए कुछ आचार्यों ने उपरोक्त प्रतिबन्धों की जटिलता से मुक्ति के उपाय भी बताये हैं। उनके अनुसार- 'मास विशेष की तिमि विशेष को अथवा पर्व विशेष पर या स्थान-विशेष में अन्य सभी नियमों, प्रतिबन्धों को तोड़कर भी दीक्षा ग्रहण की जा सकती है। यथा चैत्र शुक्ल 13, वैशाख शुक्ल 11, ज्येष्ठ कृष्ण 14, अपाड़ी नागपन्चमी, श्रावणी 11, भादों की जन्माष्टमी, बवार कृष्ण 8, कार्तिक शुक्ल 9, अगहन शुक्ल 6, पूस शुक्ल 14, माघ शुक्ल 11, काल्गुन शुक्ल 6 - ये तिथियाँ सदैव कल्याणकारक हैं। उनके अतिरिक्त सोमवती अमावस, मङ्गल की 14, रवि की 7 भी दीक्षा के लिए श्रेष्ठ तिथियाँ हैं।


स्थान:


दीक्षा ग्रहण करने के लिए महर्षियों ने स्थान का भी निर्देश किया है। वे शुभ एवं अशुभ स्थानों के सम्बन्ध में इस प्रकार इङ्गित करते हैं 


शुभ स्थान- गो-शाला, उपवन, पर्वत शिखर, पर्वतीय-गुफा, तीर्थ, सरिता तट, गुरु का निवास स्थान, देव मन्दिर वन, इमली- वृक्ष के समीप और तट ( शमशान नहीं ) ।


निषिद्ध स्थान–चन्द्र पर्वती ससुराल ) मातङ्ग-देश,विरजा-तीर्थ, सूर्य-क्षेत्र, गया धाम, भट्ट-ग्राम | 


विशेष अनुकूलता- समय अर्थात् मुहूर्त सम्बन्धी सारे नियम उस स्थिति में मिथिल हो जाते हैं, जब साधक गङ्गातट के पवित्र तीर्थ, कुरुक्षेत्र, प्रयाग अथवा काशी जैसे किसी परम पवित्र स्थान रर दीक्षा ग्रहण करता है ।


और, समस्त नियम उपनियम उस समय उपेक्षणीय हो जाते हैं, जब साधक गुरु का आज्ञा-पालक हो जाता है। अनुभव सिद्ध सत्य है कि यदि गुरु के निर्णय और आदेश के अनुसार दीक्षा ग्रहण की जाय, तो समस्त निषेधों की स्वतः समाप्ति हो जाती हैं। ( किन्तु ऐसी स्थिति में गुरु को सिद्ध-सन्त अथवा मूर्धन्य तपस्वी होना आवश्यक है, तभी वह अपनी प्रभावक्षमता से अपने सिद्धि-बल से विघ्नों का शमन कर सकेगा। सामान्य साधु पुजारी ऐसा नहीं कर सकेंगे। ) यथा सम्भव नियमानु सार काल और स्थान को ही बरीगता देकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। दीक्षा ग्रहण में नहीं, वस्तुतः किसी भी जयं के प्रारम्भ में मुहूर्त और स्थान का विचार कर लेना कल्याणकारी होता है। जहाँ तक स्थान विशेष की आज्ञा है, तो वैसी व्यवस्था करें अन्यथा सात्विक साधना के लिए संगम तट बेल वृक्ष की छाया, तुलसी उद्यान, अन्य कोई वाटिका पीपल अथवा आंवले की छाया कोई प्राचीन तपोभूमि, कन्दरा अथवा चट्टान श्रेष्ठ स्थान होते हैं।

(nextPage)

आसन:


मन्त्र-साधना में आन का विशेष प्रभाव पड़ता है। जिस आसन अर्थात् आधार पर बैठकर साधक ध्यान पूजा करता है, उसका विद्युतीय स्पर्श साधक के तन-मन और साधनाजित शक्ति को प्रभावित करता है। मनीषियों ने विभिन्न प्रकार के आसान को इस प्रकार विवेचित किया है 


  1. काष्ठ का आसन - पट्टा पोड़ा, पाटी अथवा लकड़ी का और कोई आसन (आवरण रहित ) साधना के लिए निषिद्ध है। इसका पदार्थगत प्रभाव साधक को दुर्घटनाग्रस्त कर सकता है। 

  2. भू-आसन- बुला भूमि पर बिना कुछ बिछापे, बैठकर जपध्यान नहीं करना चाहिए। मिट्टी का सीधा सम्पर्क मानसिक क्लेश उत्पन्न करता है।

  3. पत्तों का आसन- सावना में पत्तों से बना आसन प्रयोग करने में साधक को मानसिक एकाग्रता भङ्ग हो जाती है। ऐसा आप साधक को भ्रन, उचाट और विक्षिप्तता से आक्रान्त करता है।

  4. तृणासन - तिनकों से ( घास-फूस से ) बना हुआ आसन सर्वच निषिद्ध है। साधना में इसका प्रयोग अर्थ और यस का क्षय करता है।

  5. शिलासन- प्रस्तरखण्ड को आसन के रूप में प्रयुक्त करना उचित नहीं होता। पत्थर का आसन साधक को शारीरिक कष्ट-रोग, पीड़ा, विकृति- से आकारत करता है।

  6. बाँस, कुर्सी, वस्त्र- ये आसन भी दरिद्रता, रोग और अशान्ति के जनक होने के कारण वर्जित माने जाते हैं।

  7. मृगचर्म - यह परम श्रेष्ठ आसन है। इस पर बैठकर साधना करने से ज्ञान और सिद्धि की प्राप्ति होती है । काला मृगचर्म और भी अधिक लाभप्रद रहता है, किन्तु यह दुर्लभ आसन है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वालों के लिए यह परम सहायक होता है। मृगचर्म का प्रभाव काम कुत्सा का शमन करता है।

  8. व्याघ्र चर्म सिंह- चर्म का आसन भौतिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियाँ देता है। यह सम्पत्ति और मोक्ष दोनों का प्रदाता कहा गया है । 

  9. वेतासन - वॅत के तन्तुओं से बनाया गया आसन ( चटाई आदि ) साधना के लिए परम उपयुक्त माना गया है। यह आसन साधक को शान्ति देता है।

  10. कम्बल - ऊन से बना आसन ( कम्बल ) बहुत ही लाभप्रद कहा गया है। यह साधक के तन-मन का कष्ट दूर करके उसे सिद्धि और शान्ति प्रदान करता है। रंगीन कम्बल, जितने अधिक रंगो में बना हो, और भी उत्तम होता है।

  11. कुशासन- भारतीय अध्यात्म-साधकों के मध्य यह आसन सर्वाधिक प्रचलित है। कारण कि यह सर्वश्रेष्ठ गुण सम्पन्न और सहज सुलभ होता है। 'कुन' नामक घास से निर्मित यह आसन आयुर्वेद और अध्यात्म दोनों की कसोटी पर साध के लिए परम हितकर प्रमाणित होता है। यह ऐसा आसन है, जो लगभग सभी प्रकार की कामना पूर्ति करता है। पातक, शाप, प्रेत-बाधा, कलुष, बशान्ति और दुष्कल्पनाओं को नष्ट करके यह साधक में सात्विक भावनाओं का उद्भव करता है । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से भी यह आसन शरीर की ऊर्जा का संरक्षक होता है।


साधना में ( वह मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र जो भी हो ) यदि किसी विशेष आसन का निर्देश हो, तब तो उसी के अनुसार आसन की व्यवस्था करनी चाहिए, अन्यथा कम्बल' कुश, बेंत, मृग-चर्म- जो भी सुलभ हो, उसका प्रयोग किया जा सकता है।

(nextPage)

माला


मन्त्र जप की संख्या का हिसाब माला से ही बन पाता है। माला के अभाव में यद्यपि अन्य विकल्प है, पर सामान्य साधक उनके द्वारा जय संख्या पर सन्तुलन नहीं रख सकता। इसलिए माला की अनिवार्यता अकाट्य है। साथ ही माला के मनको का स्पर्श भी एक प्रभाव-विशेष को उत्पत्ति करता है। मन्त्र-साधना में उद्देश्य भेद की दृष्टि से अनेक प्रकार की मालाओं का ( विभिन्न पदार्थों से बने मनकों की माला का ) विधान किया गया है। जिस साधना के लिए जिस माला का निर्देश हो, के उसी का प्रयोग करना चाहिए। चूंकि मन्त्र-साधना के लिए मुख्य उद्देश्यों को 6 वर्गों में विभाजित करके उन्हें षट्कर्म की संज्ञा दी गई है ( कुछ विद्वानों ने इस वर्गीकरण का विस्तार करके दस कर्म प्रतिपादित किये हैं), अतः प्रत्येक कर्म के लिए माला विशेष का नियम बनाया गया है।


माला के उपादान


माला का वर्णन करने के पूर्व उसका परिचय दे देना अधिक संगत होगा। किसी भी वस्तु को उसकी विभिन्न समरूप इकाइयों को, मनकों की तरह एक सूत्र में पिरो लेना और सूत्र के दोनों सिरों को परस्पर जोड़कर, मनकों की उस श्रृंखला को गोल घेरे का रूप देना, माला कहलाता है। माला का प्रत्येक मनका ( मणि ) उस वस्तुका दाता कहा जाता है, जिसकी वह इकाई होता है। माता बनाने के लिए। कई वस्तुओं के मनके प्रयुक्त होते हैं। अवसर विशेष पर मन्त्र-शास्त्र के आदेशानुसार वस्तु-विशेष की माला बनाई जाती है। बसे सामान्य रूप में लोग तुलसी ( तुलसी की लकड़ी के टुकड़े ) वैजयन्ती, कमलगट्ठा, मूंगा, मोती, पुत्रजीवा, धुंधुची और रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करते हैं।


प्रयोजन और माला:


  1. कामनापूर्ति - सात्विक अथवा राजसिक प्रयोजन की सिद्धि हेतु मन्त्र शास्त्र में चाँदी के मनकों की माला का प्रयोग श्रेष्ठ कहा गया है।

  2. श्री समृद्धि - धनार्जन, लक्ष्मी कृपा, अर्थ-प्राप्ति, सांसारिक वैभव आदि के लिए मूंगे की माला द्वारा जप करना लाभप्रद रहता है।

  3. सन्तान प्राप्ति हेतु- सन्तान (पुत्र-पुत्री ) की कामना से साधना करने वाले जनों के लिए 'पुत्रजीवा' के दानों की माला उपयुक्त होती है।

  4. वशीकरण-आकर्षण- ऐसे उद्देश्य की पूर्ति हेतु साधना में मोती अथवा मंगे की माला विशेष प्रभावकारी है ।

  5. पातक-मुक्ति- शान्ति-कर्म, पोषण, दोष-मुक्ति और शान्ति नाम के साधना काल में कुश मूल की माला ( कुश की जड़ की गाँठों से बनी हुई ) का प्रयोग विशेष रूप से लाभकारी होता है ।

  6. शत्रुनाश - अभिचार कर्मों के अन्तर्गत मारण, विशेषण, उच्चाटन आदि के लिए कमलगट्टे की माला सर्वाधिक अनुकूल होती है।

  7. भैरवी साधना- भैरवी विद्या के उपासकों, देवी भैरवी की कृपा पाने के इच्छुक साधकों को–स्वर्ण, मणि, स्फटिक, शंख अथवा मूंगे की माला प्रयुक्त करने का निर्देश दिया गया है। त्रिपुर सुथरी की साधना में लाल चन्दन की माला उपयोगी होती है। सामान्यतः रुद्राक्ष माला का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।


किसी-किसी साधना में बहेड़े की और कहीं-कहीं हल्दी की गांठों से बनी हुई माला प्रयोग करने का विधान है। इस वस्तु पार्थक्य का वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। जैसे आधुनिक यान्त्रिकी में तांबा, पीतल, बलम्युनियम, लोहा और चांदी के तारों को भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं होती हैं, ठीक उसी प्रकार उपरोक्त मालाओं का स्पर्श-भेव उँगलियों को एक विशेष प्रकार की ऊर्जा देकर मनःशक्ति को प्रभावित करता है।

(nextPage)

साधना आरम्भ का समय :


जिस प्रकार दीक्षा प्राप्ति में मुहूर्त का महत्व होता है, उसी प्रकार साधना प्रारम्भ करने के लिए भी अनुकूल समय को वरीयता देना आवश्यक है। अशुभ अथवा प्रतिकूल अवसर पर प्रारम्भ किया गया कार्य न केवल अधूरा रहता है, उसमें अनेक प्रकार के घातक विघ्न उत्पन्न होने की आशङ्का भी रहती है। मनीषियों ने उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए, साधना आरम्भ करने के लिए इस प्रकार निर्देश दिये हैं


  1. धन-लाभ के लिए - वैशाख मास, रविवार ।

  2. स्वास्थ्य, रोग मुक्ति हेतु श्रावण, मङ्गलवार ।

  3. शव-मुक्ति के लिए - ज्येष्ठ, मङ्गलवार ।

  4. सन्तान एवं सांसारिक वैभव प्राप्ति हेतु क्वार, कार्तिक, अगडून,गुरुवार ।

  5. शिक्षा, प्रतियोगिता में सफलता हेतु - माघ, फाल्गुन, चैत -बुधवार व गुरुवार |

  6. वशीकरण हेतु - मोहने या वशीकरण के लिए शनिवार या सप्तमी, आकर्षण के लिए तीज या तेरस, मोहने के लिए अष्टमी या नवमी ।

  7. उच्चाटन के लिए- बुधवार, दूज अथवा छठ ।

  8. अन्य अभिचार कर्म- मङ्गलवार पन्चमी, पूर्णिमा

  9. मारण प्रयोग हेतु - रविवार, एकादशी, द्वादशी।


विशेष-प्रसंग पूर्ति के लिए यहाँ उच्चाटन विद्वेषण आदि अभिचार कर्मों का उल्लेख कर दिया गया है, पर हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वे इन कार्यों से विरत ही रहें। मारण, उच्चाटन, विद्वेषण तथा अनुचित लाभ की पूर्ति हेतु मोहन वशीकरण भी, निन्दित प्रयोग माने जाते हैं। इनकी गणना पाप कर्म और अपराध वृत्ति में होती है। सामाजिक दृष्टि से तो इनका प्रयोग वर्जित है ही, नैतिक दृष्टि से भी ये त्याज्य कहे गये हैं। इनका प्रयोग केवल तभी क्षम्य है, जब रक्षा का अन्य कोई विकल्प न हो। वैसे रक्षा भी वैयक्तिक नहीं, सामूहिक होनी चाहिए । केवल एक व्यक्ति के लिए समूह, समाज अथवा एक पूरे वर्ग के लिए जब अनुचित रूप से प्राण-सङ्कट आ गया हो, अस्तित्व रक्षा की समस्या उठ खड़ी हुई हो, किसी ने अनैतिक आक्रमण कर दिया हो, उस स्थिति में ही ऐसे प्रयोग किये जा सकते हैं, जैसे विदेशी विधर्मी आक्रान्ता से त्राण पाने के लिए।


साधना में दिशा का महत्व


ब्रह्माण्ड हमारे चतुर्दिक प्रसारित है। इसके मध्य हमारी वही स्थिति है, जो महासागर में एक मछली की होती है। किन्तु वायुमण्डलीय दबाव तथा अन्य विकर णीय प्रभावों के कारण हमारा प्रत्येक पार्श्व हमारे अस्तित्व और जीवन को विभिन्न रूपों में स्पन्दित करता है। इसी सिद्धान्त को लेकर तथा भूमण्डल के भौतिक विवेचन की सुविधा के लिए दिशाओं की परिकल्पना की गई है। सामान्य रूप में चार और सूक्ष्म दृष्टि से दस दिशाओं में समस्त ब्रह्माण्ड विभाजित किया गया है। अस्तु, यह एक विज्ञान सम्मत तथ्य है कि प्रत्येक दिशा का आकर्षण प्रभाव एक-दूसरे से नितान्त भिन्न है। और, हम जिस दिशा की ओर उन्मुख होते हैं - हमारी कार्य क्षमता, विचार-शक्ति और शारीरिक अवयवों पर उसका प्रभाव अवश्य पढ़ता है। हम उसे अनुभव कर पायें अथवा नहीं, यह बात अलग है।


साधना-मर्मज्ञों ने, जिन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का गहन अनुभव प्राप्त करने के पश्चात् सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था, अपने ग्रन्थों और प्रवचनों में विस्तारपूर्वक व्याख्या करते हुए निर्देश दिया था कि अमुक दिशा का अमुक प्रभाव होता है, अतः अमुक कार्य के लिए अमुक दिशा की ओर उन्मुख होना चाहिए। आयुर्वेदाचार्यों ने भी इन सिद्धान्तों की पुष्टि की है। यही कारण है कि विस्तृत विवेचन से अपरिचित होने पर भी सामान्य जन तक खाने-पीने, बैठने-सोने और निर्माण-कार्य तथा प्रवास आदि में दिशा-सम्बन्धी प्रतिबन्धों का पालन करते हैं। दक्षिण दिशा की वर्जना में यही मूल कारण है। वास्तविक सिद्धान्तों से परिचय न होने के कारण भ्रान्तियाँ तथा कपोल-कल्पनाएं भले ही प्रचारित हो गई हों, पर यह सत्य है कि समाज का कोई भी वर्ग दक्षिण दिशा की ओर उन्मुख होकर भोजन, शयन, यात्रा आदि में शङ्कित रहता है । 

(nextPage)

मन्त्र-साधना के सन्दर्भ में आचार्यों का निर्देश है कि –

पूर्व दिशा - की ओर मुँह करके वे साधनाएं की जाती हैं, जिनका उद्देश्य देव कृपा की प्राप्ति, अन्य प्रकार के शुभ एवं सात्विक कार्यों की पूर्ति अथवा सम्मोहन सिद्धि प्राप्त करना हो । 


पश्चिम दिशा - की ओर उन्मुख होकर वे अनुष्ठान करने चाहिए जिनके परिणाम स्वरूप धन, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और वैभव अर्जित करने की लालसा हो । 


उत्तर दिशा - की ओर मुंह करके वह साधना की जाती है, जिसका लक्ष्य रोग निदान, आरोग्य-प्राप्ति, शारीरिक सुख और मानसिक शान्ति प्राप्त करना हो । 


दक्षिण दिशा - की ओर मुंह करके वे समस्त साधनाएं की जाती हैं, जिनका उद्देश्य किसी प्रकार के अभिचार कर्म का प्रतिपादन होता है। जैसे-उच्चा टन, विद्वेषण, स्तम्भन, कीलन और मारण आदि कार्य, जो हिंसा प्रधान और दूसरे के लिए विशेष रूप से अनिष्टकारी होते हैं। पर अनिष्ट ही इनका मुख्य उद्देश्य होता है।


गोपनीयता :


सात्विक, राजसी या तामसिक - चाहे जैसी साधना हो – गोपनीयता सबमें अनिवार्य है। यन्त्र, मन्त्र तन्त्र से सम्बन्धित जो भी पूजा-पाठ, जप ध्यान, प्रयोग अथवा चिन्तन किया जाये, उसमें गोपनीयता का प्रतिबन्ध अवश्य रहता है। साधना के सम्बन्ध में अन्य अनेक नियमों के साथ यह भी एक बहुत कठोर और अपरिवर्त नीय नियम है कि मन्त्र के उद्देश्य, वर्ण, उच्चारण, जप, हवन और प्रभाव-इन सबको नितान्त गुप्त रखना चाहिए। साथ ही साधक का मन सहज, सरल और निस्पृह हो। वह जो कुछ भी करे, निरभिमान भाव से करे, उसमें प्रदर्शन अथवा अई का अंश नहीं होना चाहिए।


वस्तुतः यह भी एक विज्ञान सम्मत तथ्य है, कोई वैचारिक सङ्कीर्णता नहीं । मनीषियों ने स्वानुभव से प्रतिपादित किया है कि साधना का प्रकटीकरण अथवा प्रदर्शन विघ्नों को आमन्त्रित करता है। अदृश्य आत्माएं वहाँ आकर उपद्रव मचाने लगती हैं। वैसे आज के इस कुत्सा युग में तो यह और भी व्यवहारिक प्रतीत होता है। कारण कि कोई ईर्ष्याद्विप से पीड़ित हमारे अड़ोसी पड़ोसी भी विघ्न डालने के विचार से अनेक प्रकार के प्रवाद, टीका-टिप्पणी और कानाफूसी करने लगते हैं। अतः साधना सदैव गोपनीयता पूर्ण होनी चाहिए।


हवन


मन्त्र-विद्या के अन्तर्गत कुछ ऐसी साधनाएं हैं, जिनके समापन में पूर्ण फल की प्राप्ति हेतु हवन का विधान किया गया है। मन्त्र-साधना में तो यह नियम प्राय: सर्वत्र अनिवार्य है, यन्त्र और तन्त्र की साधना में अवश्य कहीं-कहीं इसकी प्रतिबद्धता कही है। साधक को चाहिए कि जिस साधना का जैसा विधान (निर्देश) हो, उसको उसी प्रकार सम्पन्न करे । हवन एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यह जहाँ प्रदूषण का नाश करती है वहीं साधक के मनोरथ को पूर्ण करने में उपयुक्त वातावरण की सृष्टि भी करती है। ईथर-तत्व को अनुप्राणित करके साधक के अनुकूल बनाने में हवन-क्रिया का विशेष महत्व है। अस्तु, विभिन्न साधनाओं के लिए हवन की व्यवस्था पृथक् पृथक् रहती है। संक्षेप में यहाँ इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है, वैसे प्रत्येक साधना के साथ सामान्यतः हवन विधि का निर्देश भी रहता है।


शान्ति और पुष्टि कर्म सम्बन्धी जप साधना के उपरान्त किये जाने वाले हवन में पीपल के पत्ते, घी, गिलोय, गूलर या आम की लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए । आकर्षण एवं वशीकरण कार्यों के लिए चमेली के फूल, बेलपत्र और नमक का प्रयोग होता है। उच्चाटन कर्म में बिनौले को प्रयुक्त करने का विधान है और मारण कर्म में धतूरे के बीजों का निर्देश किया गया है। अर्थ- प्राप्ति, लक्ष्मी साधना सम्बन्धी हवन में सूखे बेलपत्र, घी तथा तिल की आहूति दी जाती है ।


साधना-काल में रहन-सहन । 

मन्त्र-साधक को साधना काल में पूर्णतया वनवासी तपस्वी की भांति बीत राग शान्त, स्थिर वित्त और अने मन्त्र तथा देवता के स्मरण में तन्मय रहना चाहिए। मानसिक-भटकाव, भोजन- लिप्सा, बार, अपवित्रता, क्रोध, कुत्सा, प्रलाप प्रदर्शन और वाद-विवाद से नितान्त दूर रहना आवश्यक है। घर-परिवार, नौकरी व्यवसाय और यात्रा आदि के मध्य साधना में संयम नहीं रह पाता और विश्वास तथा इच्छा-शक्ति में शिथिलता आ जाती है. अतः जप-काल और साधना के समय यथा सम्भव जन सम्पर्क से दूर एकान्तवास करना चाहिए। उपवास, सात्विक भोजन, श्रार से विरक्ति, या शयन का त्याग और मानसिक रूप से सद्-चिन्तन का अवलम्ब लेने से साधना में शान्ति और निर्विघ्नता आती है। इस प्रकार पूर्ण संयम, विधि-विधान और आस्था के साथ की गई साधना ही सफल होती है, इसके विपरीत सारे प्रयास केवल प्रदर्शन होते हैं- नितान्त मिथ्या और व्यर्थ ।


(getButton) #text=(Indian festival) #icon=(link) #color=(#2339bd)(getButton) #text=(Yantra Mantra Tantra) #icon=(link) #color=(#2339bd)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !