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श्री माता वैष्णो देवी
Shri Mata Vaishno Devi
माता जी की पवित्र गुफा समुंद्र तल से 5200 फुट की उंचाई पर स्थित है। यात्रियों को कटरा के प्रथम पड़ाव से लगभग 12 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यात्रा पूर्ण होने पर श्रद्धालु पवित्र गुफा में देवी माता के दर्शन प्राप्त करते हुए माता रानी का आर्शीवाद ग्रहण करते हैं। प्राकृतिक रूप से बनी हुई तीन चट्टानें, जिन्हें माता जी की पिण्डियां कहा जाता है, का दर्शन यहां होता है। गुफा में कोई मूर्ति आदि नहीं है।
माता वैष्णो देवी के दर्शन, वर्ष भर दिन-रात खुले रहते हैं ।
माता का बुलावा | Mata ka Bulawa
श्री माता वैष्णो जी के पवित्र मंदिर के लिए यात्रा का आरम्भ माता के बुलावे से होता है। यह विश्वास मात्र ही नहीं बल्कि सभी भक्तों का सशक्त अनुभव है कि दिव्य माता अपने बच्चों को संदेशे भेजती है। और जब भी व्यक्ति यह संदेशे प्राप्त कर लेता है तो मां का असीम प्रेम और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए यात्रा पर खिचा चला आता है। क्षेत्रीय लोक साहित्य में प्रचलित नारा ’’ मां आप बुलांदी ’’ इसी भाव को बड़ी सुंदरता से स्पष्ट कर रहा है जिसका अभिप्राय यह है कि माता रानी स्वयं बुलाती है। पवित्र मंदिर की यात्रा करने वाले लगभग सभी यात्रियों का यह अनुभव रहता है कि माता के बुलावे पर व्यक्ति को यात्रा के लिए एक कदम उठाने की जरुरत होती है और फिर सब कुछ उसी माता पर छोड़ देने पर माता के दिव्य आशीर्वाद से उसकी यात्रा पूर्ण हो जाती है।
साथ ही साथ यह भी विश्वास किया जाता है कि जब तक मां का बुलावा न आए कोई भी चाहे वह कितना ही बड़ा, ऊंचा या प्रभावशाली क्यों न हो वैष्णो माता के पवित्र मंदिर की यात्रा पर नहीं जा पाता और न ही माता का आशीर्वाद प्राप्त कर पाता है।
पवित्र मंदिर का इतिहास | Pavitra mandir ka Itihas
अधिकतर प्राचीनतम पवित्र मंदिरों की यात्राओं की तरह ही यह निश्चित कर पाना असंभव ही है कि इस पवित्र मंदिर की यात्रा कब आरम्भ हुई। गुफा के भू-वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि इस पवित्र गुफा की आयु लगभग एक लाख वर्ष की है। वैदिक साहित्य किसी स्त्री देवता की पूजा की ओर संकेत नहीं करता जबकि चारों वेदों में प्राचीनतम ऋग्वेद में त्रिकुट पर्वत का संदर्भ मिल जाता है। शक्ति की आराधना की रीति अधिकतर पौराणिक काल से आरम्भ हुई है।
देवी माता का सबसे पहला वर्णन महाभारत में हुआ है। जब पाण्डव और कौरव कुरूक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अपनी सेनाओं का ब्यूह बनाए हुए थे, श्री कृष्ण के परामर्श पर पाण्डवों के प्रमुख सेनानी अर्जुन ने देवी माता का ध्यान लगाया और युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद मांगा। जब अर्जुन ने देवी माता का ध्यान लगाया और उनसे निवेदन किया तो उन्हें ‘जम्बूकातम चित्यायशु नित्यम सन्निहत्यालय‘ कहा जिसका अभिप्राय है कि आप सदैव से जम्बू जो संभवतः आज कल के जम्मू को संदर्भित करता है; के पहाड़ की तलहटी के मंदिर में रहती आ रहीं हैं।
साधारण रूप से यह भी विश्वास किया जाता है कि पाण्डवों ने ही सबसे पहले देवी माता के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा को प्रकट करते हुए कौल कंडोली और भवन मेें मंदिर बनवाए। त्रिकूटा पहाड़ के बिलकुल साथ लगते एक पहाड़ पर पवित्र गुफा को देखते हुए पांच पत्थरों के ढांचे पांच पाण्डवों के प्रतीक हैं।
किसी इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा पवित्र गुफा की यात्रा का शायद प्राचीनतम वर्णन गुरू गोविन्द सिंह जी के प्रति मिलता है जो कहा जाता है कि पुरमण्डल के रास्ते पवित्र गुफा तक पंहुचे। पवित्र गुफा को जाने वाला पुराना रास्ता इस बहुत प्रसिद्ध तीर्थ स्थल से होकर जाता था।
कुछ परम्पराओं में इस पवित्र गुफा मंदिर को शक्ति पीठों (वह स्थान जहां देवी माता यानी अनंत ऊर्जा का आवास है) में सर्वाधिक पवित्र माना जाता है क्योंकि सती माता का सिर यहां गिरा है । कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार लोग यह मानते हैं कि यहां सती माता की दायीं भुजा गिरी थी। परंतु कुछ पाण्डुलिपियां इस विचार से सहमत नहीं हैं , वहां यह माना गया है कि सती की दायीीं भुजा कश्मीर में गांदरबल के स्थान पर गिरी थी। निःसंदेह श्री माता वैष्णो देवी जी की पवित्र गुफा में मानवीय भुजा के पत्थर के अवशेष देखे जा सकते हैं, जो वरदहस्त के रूप में प्रसिद्ध है। (हाथ जो वरदान और आशीर्वाद देता है।)
मंदिर की खोज | Mandir ki Khoj
श्री माता वैष्णो देवी के उद्भव और मंदिर की खोज से जुड़ी अनेक तरह की गाथाएं प्रचलित हैं तदपि इस बात पर सभी सहमत प्रतीत होते हैं कि लगभग 700 वर्ष पूर्व इस मंदिर की खोज पण्डित श्रीधर द्वारा की गई जिसके भण्डारे के आयोजन मे माता जी ने सहायता की थी। जब माता भैरों नाथ से बचने के लिए भण्डारे को मध्य में छोड़ कर चली गई तो कहा जाता है कि पण्डित श्रीधर को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उन्होने अपने जीवन की प्रत्येक वस्तु गंवा दी । वह बहुत दुखी रहने लगे और भोजन और जल ग्रहण करना तक छोड़ दिया। वह अपने ही घर के एक कमरे में बंद हो गये और माता जी से पुनः प्रकट होने के लिए बड़े विनम्र भाव से निवेदन करने लगे ।
तभी माता वैष्णवी श्रीधर के सपने में प्रकट हुई और उसे त्रिकूट पर्वत की तलहटियों में स्थित पवित्र गुफा को ढूंढने के लिए कहा। माता ने उस से अपना व्रत खोलने का आग्रह किया और उसे पवित्र गुफा का रास्ता भी दिखाया। माता की बात मान कर श्रीधर पर्वतों में स्थित उस पवित्र गुफा को ढूंढने के लिए चल पडे । कई बार उन्हे लगा कि वह रास्ता भूल गए है, परंतु तभी उनकी आंखों के सामने सपने में देखा वह दृष्य पुनः प्रकट हो जाता, अंततः वह अपने लक्ष्य पर पंहुच गए। गुफा में प्रवेश करने पर उन्हे तीन सिरों में ऊपर उठी हुई एक शिला मिली। उसी क्षण माता वैष्णो देवी उनके समक्ष साक्षात् प्रकट हुईं ( एक अन्य कथा में कहा गया है कि माता महा सरस्वती, माता महा लक्ष्मी एवं माता महा काली की महान दिव्य ऊर्जाएं गुफा में प्रकट हुई) और उसे शिला के रूप में तीन सिरों ( पवित्र पिण्डियों ) की पूजा करने का आदेश दिया। श्रीधर को गुफा में और भी अनेक पहचान चिन्ह मिले। माता जी ने श्रीधर को चार पुत्रों का वरदान दिया और उसे उन के उस स्वरूप की पूजा करने का अधिकार दे दिया। माता ने श्रीधर को पवित्र मंदिर की महिमा का प्रचार प्रसार करने के लिए कहा। उसके बाद श्रीधर ने अपना संपूर्ण जीवन माता जी की पवित्र गुफा में माता रानी की सेवा और भक्ति में बिता दिया।
पौराणिक गाथा : माता वैष्णो देवी जी | Mata Vaishno Devi ki Katha
पौराणिक गाथा के अनुसार जब माता असुरों का संहार करने में व्यस्त थीं तो माता के तीन मूल रूप : माता महाकाली, माता महालक्ष्मी और माता महा सरस्वती एक दिन इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों यानि अपने तेज को एकत्रित करके परस्पर मिला दिया, तभी उस स्थान से जहां तीनों के तेज मिल कर एक रूप हुए आश्चर्य चकित करने वाली तीव्र ज्योति ने सरूप धारण कर लिया और उन तीनों के तेज के मिलने से एक अति सुंदर कन्या/युवति प्रकट हुई। प्रकट होते ही उस कन्या/युवति ने उन से पूछा, ‘‘ मुझे क्यों बनाया गया है ?’’ देवियों ने उसे समझाया कि उन्होंने उसे धरती पर रह कर सद्गुणों एवं सदाचार की स्थापना, प्रचार-प्रसार एवं रक्षा हेतु अपना जीवन बिताने के लिए बनाया है।
देवियों ने कहा , ‘‘अब तुम भारत के दक्षिण में रह रहे हमारे परम भक्त रत्नाकर और उनकी पत्नी के घर जन्म लेकर धरती पर रह कर सत्य एवं धर्म की स्थापना करो और स्वयं भी आध्यात्मिक साधना में तल्लीन हो कर चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त करो। एक बार जब तुमने चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त कर लिया तो विष्णु जी में मिलकर उनमें लीन होकर एक हो जाओगी।’’ ऐसा कह कर तीनों ने कन्या/युवति को वर प्रदान किए। कुछ समय उपरांत रत्नाकर और उसकी पत्नी के घर एक बहुत सुंदर कन्या ने जन्म लिया। पति-पत्नी ने कन्या का नाम वैष्णवी रखा।
कन्या में अपने शैशवकाल से ही ज्ञान अर्जित करने की जिज्ञासा रही। ज्ञान प्राप्त करने की उसकी भूख ऐसी थी कि किसी भी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा से उसे संतुष्टि न होती। अंततः वैष्णवी ने ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने मन में चिंतन लीन होना आरम्भ कर दिया और शीघ्र ही ध्यान लगाने की कला सीख ली और समझ गई कि चिंतन मनन और पश्चाताप स्वरूप तपस्या से ही वह अपने महान लक्ष्य तक पंहुच सकेगी। इस तरह वैष्णवी ने घरेलु सुखों का त्याग कर दिया और तपस्या के लिए घने जंगलों में चली गई। उन्हीं दिनों भगवान राम अपने 14 वर्ष के वनवास काल में वैष्णवी से आ कर मिले, तो वैष्णवी ने उन्हें एकदम पहचान लिया कि वह साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि भगवान विष्णु के अवतार हैं। वैष्णवी ने पूरी कृतज्ञता के साथ उनसे उन्हें अपने आप में मिला लेने का निवेदन किया ताकि वह परम सर्जक में मिलकर एकम-एक हो जाए।जबकि राम ने इसे उचित समय न जान कर वैष्णवी को रोक दिया और उत्साहित करते हुए कहा कि वह उसे वनवास खत्म होने पर दुबारा मिलेंगे और उस समय यदि उसने उन्हें पहचान लिया तो वह उसकी इच्छा पूर्ण कर देंगे। अपने वचनों को सत्य करते हुए युद्ध जीतने के बाद राम उसे दुबारा मिले परंतु इस बार राम एक बूढ़े आदमी के भेष में मिले। दुर्भाग्य से इस बार वैष्णवी उन्हें पहचान न पाई और खीज कर उन्हें भला बुरा कहने लगी और दुखी हो गई। इस पर भगवान राम ने उन्हें सांत्वना दी कि सृजक से मिलकर उनमें एक हो जाने का अभी उसके लिए उचित समय नहीं आया है और अंततः वह समय कलियुग में आएगा जब वह (राम) कल्कि का अवतार धारण करेंगे। भगवान राम ने उसे तपस्या करने का निर्देश दिया और त्रिकुटा पर्वत श्रेणियों की तलहटियों में आश्रम स्थापित करने और अपनी आध्यात्मिक शक्ति का स्तर उन्नत करने और मानव मात्र को आशीर्वाद देने और निर्धनों और वंचित लोगों के दुखों को दूर करने की प्रेरणा दी। और कहा कि तभी विष्णाु उसे अपने में समाहित करेंगे। उसी समय वैष्णवी उत्तर भारत की ओर चल पड़ी और अनेक कठिनाइयों को झेलती हुई त्रिकुटा पर्वत की तलहटी में आ पंहुची। वहां पहुंच कर वैष्णवी ने आश्रम स्थपित किया और चिंतन मनन करते हुए तपस्या में लीन रहने लगी।
जैसा कि राम जी ने भविष्यवाणी की थी , उनकी महिमा दूर दूर तक फैल गई। और झुण्ड के झुण्ड लोग उनके पास आशीर्वाद लेने के लिए उनके आश्रम में आने लगे। समय बीतने पर महायोगी गुरु गोरखनाथ जी जिन्होंने बीते समय में भगवान राम और वैष्णवी के बीच घटित संवाद को घटते हुए देखा था, वह यह जानने के लिए उत्सुक हो उठे कि क्या वैष्णवी आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करने में सफल हुई है या नहीं। यह सच्चाई जानने के लिए उन्होंने अपने विशेष कुशल शिष्य भैरव नाथ को भेजा। आश्रम को ढूंढ कर भैरव नाथ ने छिप कर वैष्णवी की निगरानी करना आरम्भ कर दिया और जान गया कि यद्धपि वह साधवी है पर हमेशा अपने साथ धनुष वाण रखती है, और हमेशा लंगूरों एवं भंयकर दिखने वाले शेर से घिरी रहती है। भैरव नाथ वैष्णवी की आसाधारण सुंदरता पर आसक्त हो गया। वह अपनी सारी सद्बुद्धि को भूलकर , वैष्णवी पर विवाह के लिए दबाव डालने लगा। इसी समय वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर ने सामूहिक भण्डारे का आयोजन किया जिसमें समूचे गांव और महायोगी गुरु गोरखनाथ जी को उनके सभी अनुयायियों को भैरव नाथ सहित निमंत्रण दिया गया। सामूहिक भोज के दौरान भैरव नाथ ने वैष्णवी का अपहरण करना चाहा परंतु वैष्णवी ने भरसक यत्न करके उसे झिंझोड़ कर धकेल दिया। अपने यत्न में असफल रहने पर वैष्णवी ने पर्वतों में पलायन कर जाने का निर्णय कर लिया ताकि बिना किसी विघ्न के अपनी तपस्या कर सके। फिर भी भैरो नाथ ने उसने लक्ष्य स्थान तक उनका पीछा किया।
आजकल के बाणगंगा, चरणपादुका और अधकुआरी स्थानों पर पड़ाव के बाद अंततः देवी पवित्र गुफा मंदिर जा पंहुची। जब भैरों नाथ ने देवी का;े संघर्ष से बचने के उनके प्रयासों के बावजूद पीछा करना न छोड़ा तो देवी भी उसका वध करने के लिए विवश हो गई। जब माता गुफा के मुहाने के बाहर थीं तो उन्होंने भैरों नाथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंततः भैरों नाथ मृत्यु को प्राप्त हुआ। भैरों नाथ का सिर दूर की पहाड़ी चोटी पर धड़ाम से गिरा। अपनी मृत्यु के समय भैरों नाथ ने अपने उद्धेश्य की व्यर्थता को पहचान लिया और देवी से क्षमा प्रार्थना करने लगा। सर्वशक्तिमान माता को भैरों नाथ पर दया आ गई और उन्होंने उसे वरदान दिया कि देवी के प्रत्येक श्रद्धालु की देवी के दर्शनों के बाद भैरों नाथ के दर्शन करने पर ही यात्रा पूर्ण होगी। इसी बीच वैष्णवी ने अपने भौतिक शरीर को त्याग देने का निर्णय किया और तीन पिण्डियों वाली एक शिला के रूप में परिवर्तित हो गई और सदा के लिए तपस्या में तल्लीन हो गईं।
इस तरह तीन सिरों या तीन पिण्डियों वाली साढे पांच फुट की लम्बी शिला स्वरूप वैष्णवी के दर्शन श्रद्धालुओं की यात्रा का अंतिम पड़ाव होता है। इस तरह पवित्र गुफा में ये तीन पिण्डियां पवित्रतम स्थान है। यह पवित्र गुफा माता वैष्णो देवी जी के मंदिर के रूप में विश्व प्रसिद्ध है और सभी लोगों में सम्मान प्राप्त कर रही है।
पौराणिक गाथा : पण्डित श्रीधर की कथा | Pandit Shreedhar ki Katha
माता वैष्णो देवी के मंदिर से जुड़ी अनेक पौराणिक कथाओं में से एक कथा वनवास काल के दौरान भगवान राम के वैष्णवी से मिलने और उन्हें त्रिकुट पर्वत पर स्थित पवित्र गुफा में जाने के निर्देश/परामर्श की कथा भी मिलती है। इस कथा के अतिरिक्त पाण्डवों की कथा भी मिलती है कि वे माता जी के इस पवित्र निवास पर आए और यह भी विश्वास किया जाता है कि पाण्डवों ने माता के मंदिर (भवन) का निर्माण किया। यह भी विश्वास किया जाता है कि असुरराज हिरण्याकिश्यप के पुत्र भक्त प्रह्लाद ने भी वैष्णो माता के इस पवित्र मंदिर की यात्रा की थी। फिर भी सबसे अधिक प्रसिद्ध और सर्वाधिक जानी जाने वाली पौराणिक कथा ब्राह्मण श्रीधर की है जो त्रिकुट पर्वत की तराई में आजकल के कस्बे कटरा के निकट लगते गांव हंसली में रहता था।
श्रीधर शक्ति का परम भक्त था। यद्धपि वह बहुत ही निर्धन व्यक्ति था फिर भी उसने सपने में देवी के साथ हुई भेंट से प्रेरित और आश्वस्त होकर विशाल भण्डारे के आयोजन की ठानी। क्योंकि माता ने एक दिन स्वयं उसे सपने में आ कर प्रेरित कर आश्वस्त किया था। भण्डारे के लिए एक शुभ दिन चुना गया और श्रीधर ने निकटवर्ती गांवों में रहने वाले लोगों को भण्डारे में आने का न्योता दे दिया। इसके बाद श्रीधर अपने पड़ोसियों एवं जान पहचान वालों के द्वार द्वार गया और उनसे आनाज, खाद्यान्न आदि मांगने लगा ताकि उसे पका कर भण्डारे में आए लोगों और अतिथियों को खिला सके। अधिकतर लोगों ने श्रीधर के निवेदन की परवाह न की। यद्धपि कुछ ही लोगों ने श्रीधर को खाद्यन्न आदि सामान दे कर कृतार्थ किया। वास्तव में उन्होंने श्रीधर को चिढ़ाया ही था जो बिना धन साधन के भण्डारे का आयोजन करने की हिम्मत कर रहा था। ज्यों-ज्यों भंडारे का दिन निकट आता गया , भण्डारे में बुलाए गए अतिथियों को खाना खिलाने की श्रीधर की चिंता बढ़ती गई। भण्डारे के दिन से पहले की रात श्रीधर पल भर के लिए भी सो न सका।
उसने सारी रात इसी चिंता और परेशानी से जूझते हुए बिता दी कि वह भण्डारे में बुलाए अतिथियों को अपने सीमित साधनों से कैसे भोजन करवाएगा और अपने इस छोटे से स्थान में कैसे बिठाएगा। प्रातः होने तक जब वह अपनी इस समस्या का कोई संतोषजनक हल न खोज सका तो उसने अपने आप को भाग्य के हवाले कर दिया और परेशान करने वाले दिन का सामना करने के लिए उठ खड़ा हुआ। वह अपनी झोंपड़ी के बाहर पूजा करने के लिए बैठ गया। दोपहर होने तक मेहमान आने लगे उसे पूजा में पूरी तरह व्यस्त देख कर वे जहां स्थान मिला वहीं आराम करने के लिए बैठते गए। हैरानी की बात थी कि मेहमानों की बहुत बड़ी संख्या बड़े आराम से उस छोटी सी झोंपड़ी में अपनी-अपनी जगह समा गई फिर भी झोंपड़ी में काफी जगह शेष खाली रह गई थी। जब पूजा पूरी करके श्रीधर ने अपने इर्द गिर्द मेहमानों की बहुत बड़ी संख्या को देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया। वह अभी सोच ही रहा था कि वह मेहमानों को कैसे कहे कि वह उन्हें भोजन करवाने में असमर्थ है कि उसे अपनी झोंपड़ी में से बाहर आती हुई वैष्णवी दिखाई दी। वैष्णवी देवी की कृपा से सभी मेहमानों को उनकी मन मर्जी का भोजन दिया गया। भैरों द्वारा पैदा की गई समस्याओं के बावजूद भण्डारा बड़ी सफलता से पूर्ण हो गया। भैरों गुरु गोरखनाथ का शिष्य था, जो भण्डारे में बुलाए गए थे।
भण्डारे के बाद श्रीधर वैष्णवी की जादुई शक्तियों के पीछे छिपे रहस्य की तह तक जाने के लिए बड़ा उत्सुक हो उठा। उसने दिन भर के रहस्यमय और चमत्कारी कार्यों के विषय में जानने के लिए वैष्णवी को ढूंढा परंतु वह उसके प्रश्नों के उत्तर देने के लिए वहां पर उपलब्ध नहीं थी। श्रीधर ने उसे बार बार पुकारा परंतु कोई नतीजा न निकला। उसने बहुत ढूंढा परंतु वैष्णवी कहीं न मिली। श्रीधर को खालीपन की अनुभूति ने घेर लिया। एक दिन वह कन्या श्रीधर के सपने में आई और उसने श्रीधर को बताया कि वह वैष्णवी देवी है। देवी ने श्रीधर को अपनी गुफा का दृष्य दिखाया और उसे चार पुत्रों का वरदान भी दिया। श्रीधर फिर से प्रसन्न हो उठा और गुफा की तलाश में चल पड़ा। गुफा को ढूंढ कर उसने सारा जीवन देवी की पूजा में व्यतीत कर देने का निर्णय ले लिया। शीघ्र ही देवी की पवित्र गुफा की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैल गई और श्रद्धालु शक्तिशाली देवी मां को श्रद्धा भेंट करने के लिए उमड़ने लगे।
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पौराणिक गाथा : मधु कैटभ की कथा | Madhu Kaitabha ki katha
काल के आरम्भ में चारों ओर समुद्र ही समुद्र था। विष्णु जी योगनिद्रा के प्रभाव में शेष नाग पर क्रियाहीन होकर गहरी निद्रा में सो रहे थे। जब भगवान विष्णु सोए हुए थे तो उनकी नाभि से एक कमल नाल अंकुरित हो कर बड़ा हो गया। कमल नाल के उपरी सिरे पर कमल का फूल उगा। उस कमल के फूल में ब्रह्मा जी पैदा हुए और पैदा होते ही गहन तपस्या में लीन हो गए। जब कमल के फूल में बैठ कर ब्रह्मा जी वेदों का उच्चारण करते हुए गहरी तपश्चर्या में लीन थे, विष्णु के दोनों कानों से कान का मैल बाहर निकल आया।
कानों से निकले मैल से मधु और कैटभ नाम के दो असुर पैदा हुए। इन असुरों ने हजारों वर्ष तक घोर तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें दर्शन दिया और इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। अपनी अत्याधिक शक्ति के प्रति सचेत होकर दोनों असुर अंहकारी हो गए। उन्होंने ब्रह्मा पर आक्रमण कर दिया और उनसे चारों वेद छीन कर ले गए। ब्रह्मा उन असुरों की प्रचण्ड शक्ति के सामने असहाय हो गए, इसलिए बहुत घबराहट में वह विष्णु जी से सुरक्षा पाने के लिए दौड़ पड़े।
विष्णु जी योगनिद्रा के प्रभाव में गहरी निद्रा में सोए हुए थे, जो ब्रह्मा जी के पूरे यत्नों के बाद भी नींद से न जागे। जब ब्रह्मा जी ने जान लिया कि वह योगनिद्रा में सो रहे विष्णु को साधारण तरीके से नहीं जगा सकते तो उन्होंने योगनिद्रा की निवेदन पूर्वक स्तुति की कि वह विष्णु जी को जगाने में उनकी सहायता करे। तब ब्रह्मा जी की भावपूर्ण प्रार्थनाओं से योगनिद्रा प्रसन्न हो गई। उन्होंनें ब्रह्मा जी के निवेदन पूर्ण कर्म पर दया की और विष्णु के शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त कर दिया। ज्यों ही योगनिद्रा ने विष्णु जी के शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त किया, विष्णु जी जाग पड़े। ब्रह्मा जी ने उन्हें मधु और कैटभ के घातक उद्धेश्यों के बारे में बताया और उन्हें नष्ट करने के लिए उनसे निवेदन किया। इस तरह भगवान विष्णु ने दोनों असुरों से भंयकर और लम्बा युद्ध करके उन्हें मार दिया।
मधु कैटभ के इस प्रसंग में देवी दुर्गा को योगमाया के रूप में चित्रित किया गया है। योगमाया (देवी दुर्गा) का शक्तिशली प्रभाव भगवान विष्णु तक को असहाय कर देता है।
माता वैष्णो देवी के दर्शन | Vaishno Devi ke Darshan
त्रिकुटा पर्वत, जहां पर माता का मंदिर और पवित्र गुफा स्थित है परम चेतना के आयाम खोलने वाला द्वार है। त्रिकुटा पर्वत, नीचे से एक और ऊपर से तीन चोटियों वाला है जिसके कारण उसे त्रिकूट भी कहा जाता है। त्रिकुटा पर्वत देवी माता के स्वरूप को ही प्रतिबिंबित करता है। पवित्र गुफा में वह प्राकृतिक शिला के रूप में है जो नीचे से एक ही शिला है और ऊपर तीन चोटियां सिरों के रूप में हैं। एक चट्टान की ये तीन चोटियां पवित्र पिण्डियां कही जाती हैं और देवी माता के प्रतीक स्वरूप पूजी जाती हैं। पूरी चट्टान जल में डूबी हुई है और उसके गिर्द संगमरमर का चौंतड़ा बना दिया गया है। प्रमुख दर्शन तीनों पवित्र पिण्डियों के ही हैं। इन पवित्र पिण्डियों की विशेषता यह है कि यद्धपि यह तीनों पिण्डियां एक ही चट्टान से बनी हैं परंतु प्रत्येक पिण्डी रंग और छवि में दूसरी पिण्डियों से भिन्न विशिष्टता रखती है।
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माँ महाकाली | Maa Mahakali
श्रद्धालु के दायीं ओर विध्वंस की सर्वोच्च ऊर्जा माता महाकाली की पिण्डी काले रंग की है। महाकाली के नाम के साथ ही काला रंग जुड़ा हुआ है। विध्वंस की सर्वोच्च ऊर्जा महाकाली है। वह तम गुण का प्रतिनिधित्व करती है। तम गुण अंधकार और जीवन के अज्ञात से जुड़ी विशेषता है। तम का अर्थ है अंधकार। मनोविज्ञान और विज्ञान के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड का बहुत कम प्रतिशत चेतन है शेष सब अभी अवचेतन या अचेतन ही है। ये अज्ञात सत्ता जीवन के सभी रहस्यों से भरी पड़ी है। सृजन एक व्यवस्था है जो समय विशेष में मौजूद रहती है जबकि ऊर्जा समय की सीमा बाधा को पार कर जाती है वही ऊर्जा अनंत समय- महाकाली है। मनुष्य का जीवन के प्रति ज्ञान बहुत सीमित है और वह जीवन के प्रति अधिकतर अंधकार में रहता है। काला रंग इसी अज्ञात को प्रस्तुत करता है जो माता काली से सम्बद्ध है। वह सब जो जो रहस्यमय है और मनुष्य के लिए अज्ञात है, माता महाकाली उस सब का मूल स्रोत है। अपने महाकाली के रूप में देवी माता अपने श्रद्धालुओं को लगातार अंधकार की शक्तियों से जीतने के लिए प्रेरित करती हैं और राह दिखाती हैं।
माँ महालक्ष्मी | Maa Mahalaxmi
मध्य में माता महालक्ष्मी जी की पीतांबर-हल्के लाल रंग की छवि वाली पवित्र पिण्डी है। यह माता महालक्ष्मी से सम्बद्ध रंग है। महालक्ष्मी भरण पोषण और प्रबन्धन की सर्वोच्च ऊर्जा है। यह राजस गुण का प्रतिनिधित्व करती है। राजस गुण प्रेरणा और कर्म का गुण है और यह गुण धन, सम्पदा , सांसारिक सुख, लाभ और जीवन स्तर की मूल ऊर्जा मानी जाती है। धन और सम्पन्नता सोने से प्रतिबिंबित किए जाते हैं। सोने का रंग भी पीला होता है और इसलिए यह रंग माता महालक्ष्मी से सम्बद्ध है।
माँ महासरस्वती | Maa Maha Sarasvati
दर्शक के बाईं ओर वाली पिण्डी को माता महासरस्वती के रूप में पूजा जाता है। माता महासरस्वती निर्माण की सर्वोच्च ऊर्जा है। ध्यानपूर्वक देखने पर यह पिण्डी श्वेत रंग की दिखाई पड़ती है। श्वेत रंग महासरस्वती से सम्बद्ध रंग माना जाता है। सृजन की सर्वोच्च ऊर्जा महासरस्वती है। माता सरस्वती सृजन, ज्ञान, बुद्धिमता, सदाचार, कला, अध्ययन, पवित्रता और निर्मलता की द्योतक है। माता महासरस्वती सत्व गुण यानि पवित्रता के गुण का प्रतिनिधित्व करती है।
पवित्र गुफा इन तीनों ऊर्जाओं का स्रोत है। पवित्र गुफा इन शक्तियों को उत्पन्न करने में प्राणी को सहायता देती है और दुर्लभ संतुलन को स्थापित करने में प्राणी की सहायता करती है। यही वह तथ्य है जो माता वैष्णो देवी जी की पवित्र गुफा को समूचे संसार में विशिष्ट बनाता है।
यह दुबारा बता दें कि पवित्र गुफा के भीतर शिला में बनी प्राकृतिक पिण्डियों के रूप में माता जी के दर्शन होते हैं।
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