श्लोक : सुखद जीवन के लिएShlok for Peaceful Life
विभिन्न संस्कृत शास्त्रों और पुस्तकों से लोकप्रिय श्लोक का संग्रह आप के लिए लाये है। अधिकांश जीवन के बारे में शिक्षाओं से भरे हुए हैं, आज की जीवन शैली मे जहाँ मानसिक तनाव है। यदि आप इन्हे अपने जीवन मे अपनाते है तो, अवश्य ही आपको शांति मिलेगी। संस्कृत श्लोक का हिंदी मे अनुवाद आपको और समझने मे मदद देगा।
punya shlok ahilya bai,sanskrit shlok,shlok,manache shlok,shlok in sanskrit, geeta shlok,bhagwat geeta shlok,shlok in hindi,manache shlok lyrics,geeta sanskrit shlok,vidya sanskrit shlok,yada yada hi dharmasya shlok,saraswati shlok.
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
भावार्थ :
मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥
भावार्थ :
रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता ।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्॥
भावार्थ :
अच्छी संगति जीवन का आधार हैं अगर अच्छे मित्र साथ हैं तो मुर्ख भी ज्ञानी बन जाता हैं झूठ बोलने वाला सच बोलने लगता हैं, अच्छी संगति से मान प्रतिष्ठा बढ़ती हैं पापी दोषमुक्त हो जाता हैं । मिजाज खुश रहने लगता हैं और यश सभी दिशाओं में फैलता हैं, मनुष्य का कौन सा भला नहीं होता ।
(nextPage)
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
भावार्थ :
तेरा मेरा करने वाले लोगो की सोच उन्हें बहुत कम देती हैं उन्हें छोटा बना देती हैं जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं उदार चरित्र के हैं पूरा संसार ही उसका परिवार होता हैं ।
पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥
भावार्थ :
किताबों मे छपा अक्षर ज्ञान एवम दूसरों को दिया धन यह दोनों मुसीबत में कभी काम नहीं आते ।
अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥
भावार्थ :
जो आलस करते हैं उन्हें विद्या नहीं मिलती, जिनके पास विद्या नहीं होती वो धन नहीं कमा सकता, जो निर्धन हैं उनके मित्र नहीं होते और मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती ।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ॥
भावार्थ :
जो व्यक्ति कर्मठ नहीं हैं अपना धर्म नहीं निभाता वो शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी गरीब हैं और पढ़े लिखे होते हुये भी अज्ञानी हैं।
चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥
भावार्थ :
चन्दन को संसार में सबसे शीतल लेप माना गया हैं लेकिन कहते हैं चंद्रमा उससे भी ज्यादा शीतलता देता हैं लेकिन इन सबके अलावा अच्छे मित्रो का साथ सबसे अधिक शीतलता एवम शांति देता हैं ।
(nextPage)
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
भावार्थ :
महर्षि वेदव्यास ने अपने पुराण में दो बाते कही हैं जिनमें पहली हैं दूसरों का भला करना पुण्य हैं और दूसरी दुसरो को अपनी वजह से दुखी करना ही पापा है ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन, विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥
भावार्थ :
कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती,कानों की शोभा शिक्षा प्रद बातों को सुनने से बढ़ती हैं । उसी प्रकार हाथों में कंगन धारण करने से वे सुन्दर नहीं होते उनकी शोभा शुभ कार्यों अर्थात दान देने से बढ़ती हैं । परहित करने वाले सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित मे किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं ।
पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् ।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥
भावार्थ :
किताबों मे छपा अक्षर ज्ञान एवम दूसरों को दिया धन यह दोनों मुसीबत में कभी काम नहीं आते ।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥
भावार्थ :
जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्यूंकि बिना सोचे किया गया कार्य घर में विपत्तियों को आमंत्रण देता हैं । जो व्यक्ति सहजता से सोच समझ कर विचार करके अपना काम करते हैं लक्ष्मी स्वयम ही उनका चुनाव कर लेती हैं ।
वयसि गते कः कामविकारः,शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥
भावार्थ :
आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ।
(nextPage)
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्च्त्याशावायुः॥
भावार्थ :
दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ।
विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥
भावार्थ :
यात्रा के समय ज्ञान एक मित्र की तरह साथ देता हैं घर में पत्नी एक मित्र की तरह साथ देती हैं, बीमारी के समय दवाएँ साथ निभाती हैं अंत समय में धर्म सबसे बड़ा मित्र होता हैं ।
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं,निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥
भावार्थ :
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥
भावार्थ :
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ।
योगरतो वाभोगरतोवा,सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥
भावार्थ :
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ।
(nextPage)
क्रोधो वैवस्वतो राजा तॄष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुघा धेनु सन्तोषो नन्दनं वनम्॥
भावार्थ :
क्रोध यमराज के समान है और तृष्णा नरक की वैतरणी नदी के समान। विद्या सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु है और संतोष स्वर्ग का नंदन वन है ।
लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥
भावार्थ :
लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।
बालस्तावत् क्रीडासक्त तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्त परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः॥
भावार्थ :
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ।
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,लोक शोकहतं च समस्तम्॥
भावार्थ :
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ।
धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
भावार्थ :
धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
भावार्थ :
विनम्र और नित्य अनुभवियों की सेवा करने वाले में चार गुणों का विकास होता है - आयु, विद्या, यश और बल ।
(nextPage)
चित्तोद्वेगं विधायापि हरिर्यद्यत् करिष्यति।
तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत॥
भावार्थ :
चिंता और उद्वेग में संयम रख कर और ऐसा मान कर कि श्रीहरि जो जो भी करेंगे वह उनकी लीला मात्र है, चिंता को शीघ्र त्याग दें ।
यावद्वित्तोपार्जनसक्त तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥
भावार्थ :
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधमः॥
भावार्थ :
मनुष्यों में सबसे अधम अर्थात नीच पुरुष वही है, जो बिना बुलाए किसी के यहाँ जाता है और बिना पूछे अधिक बोलता है साथ ही जिसपर विश्वास न किया जाये उसपर भी विश्वास करता है, उसे ही मूढ़, चेता, तथा अधम पुरुष कहा गया है ।
एकोधर्मः परं श्रेयः क्षमैका शांतिरुत्तमा विद्यैका परमा तृप्तिः अहिंसैका सुखावहा॥
भावार्थ :
एक ही धर्म श्रेठ एवं कल्याणकारी होता है । शान्ति का सर्वोत्तम रूप क्षमा है, सबसे बड़ी तृप्ति विद्या से प्राप्त होती है तथा अहिंसा सुख देने वाली है ।
दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते॥
भावार्थ :
यदि किसी को देखने से या स्पर्श करने से, सुनने से या बात करने से हृदय द्रवित हो तो इसे स्नेह कहा जाता है ।
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥
भावार्थ :
उत्साह श्रेष्ठ पुरुषों का बल है, उत्साह से बढ़कर और कोई बल नहीं है। उत्साहित व्यक्ति के लिए इस लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥
भावार्थ :
अधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिए पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए। अपने कमाये हुए धन का धीरे-धीरे उपभोग करना चाहिये ।
(nextPage)
पातितोऽपि कराघातै-रुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तानाम-स्थायिन्यो विपत्तयः॥
भावार्थ :
हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद ऊपर की ओर उठती है, सज्जनों का बुरा समय अधिकतर थोड़े समय के लिए ही होता है ।
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
भावार्थ :
कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है ।
नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥
भावार्थ :
सज्जन व्यक्ति नारियल के समान होते हैं, अन्य तो बदरी फल के समान केवल बाहर से ही अच्छे लगते हैं ।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्॥
भावार्थ :
निम्न कोटि के लोग केवल धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें सम्मान से कोई मतलब नहीं होता है । जबकि एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और मान दोनों की इच्छा रखता है । और उत्तम कोटि के लोगों के लिए सम्मान हीं सर्वोपरी होता है सम्मान धन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है ।
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
भावार्थ :
वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है । उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है ।
(nextPage)
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम्॥
भावार्थ :
दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए । पहला, वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो । दूसरा, वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो ।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
भावार्थ :
जिस कुल में स्त्रीयाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रीयों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञानदि कर्म निष्फल होते हैं।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
भावार्थ :
विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है । क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है वह हर जगह सम्मान पाता है ।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा॥
भावार्थ :
सैकड़ों में कोई एक शूर-वीर होता है, हजारों में कोई एक विद्वान होता है, दस हजार में कोई एक वक्ता होता है और दानी लाखों में कोई विरला हीं होता है ।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा॥
भावार्थ :
जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है।
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः ।
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥
भावार्थ :
कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए । और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए । ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है । जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है ।
(nextPage)
तडागकृत् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः ।
एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥
भावार्थ :
तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने, अैर यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है, इसके अतिरिक्त सत्य बोलने वालों को भी महत्व मिलता है ।
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥
भावार्थ :
धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।
दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥
भावार्थ :
धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।
लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥
भावार्थ :
लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी ।
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ॥
भावार्थ :
लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है, यानी विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । वस्तुतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।
(nextPage)
एवं च ते निश्चयमेतु बुद्धिर्दृष्ट्वा विचित्रं जगतः प्रचारम् ।
सन्तापहेतुर्न सुतो न बन्धुरज्ञाननैमित्तिक एष तापः ॥
भावार्थ :
इस संसार की विचित्र गति को देखकर आपकी बुद्धि यह निश्चित समझे कि मनुष्य के मानसिक कष्ट या संताप के लिए उसका पुत्र अथवा बंधु कारण नहीं है, बल्कि दुःख का असली निमित्त तो अज्ञान है ।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ॥
भावार्थ :
मनुष्य की इच्छा कामनाओं के अनुरूप सुखभोग से नहीं तृप्त होती है । यानी व्यक्ति की इच्छा फिर भी बनी रहती है । असल में वह तो और बढ़ने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे आग में इंधन डालने से वह अधिक प्रज्वलित हो उठती है ।
संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ॥
भावार्थ :
संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति ।
(getButton) #text=(Indian festival) #icon=(link) #color=(#2339bd)