मन्त्र - विज्ञान | Mantra Vigyan

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मन्त्र - विज्ञान | Mantra Vigyan 

संक्षिप्त परिचय : मन्त्र - विज्ञान | Mantra Vigyan

अध्यात्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। यह समस्त जड़-चेतन जगत की सीमाओं का स्पर्श करता है। भारतीय दर्शन के अनुसार तो अखिल विश्व अखिल सृष्टि ही अध्यात्ममय है। यहाँ के मनीषियों के कण-कण में, अणु-अणु में अध्यात्म के तत्वों का अनुसन्धान किया है।

ब्रह्माण्ड की उस अदृश्य शक्ति को, जो सृष्टि का नियमन करती है, विश्व के विचारकों ने विभिन्न संज्ञान से सम्बोधित किया है। ईश्वर प्रकृति, भगवान, बल्लाह और गॉड-सब उसी के नाम हैं। किसी न किसी रूप में सबने उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है और उसके सामीप्य, दर्शन, वुष्टि, अनुकूलता, कृपाप्राप्ति आदि के साधन परिकल्पित किए हैं। यह भी एक रहस्यमय सत्य है कि तन्मयतापूर्वक चाहे जिस मार्ग का अनुसरण किया जाय, किसी न किसी रूप में उस अदृश्य शक्ति के उस अपराजेय मत्ता के अस्तित्व का आभास अवश्य हो जाता है।

Mantra-Vigyan


विश्व, ब्रह्माण्ड की उस अदृश्य-सत्ता, उस अलौकिक शक्ति को जो ईश्वर के नाम से विख्यात है, देखने-पाने के लिए एकमात्र साधन अध्यात्म ही है। अध्यात्म की विभिन्न शाखाएं हैं। किसी भी एक के माध्यम से लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। अध्यात्म की ऐसी ही एक शाखा है - मन्त्र यह विषय स्वयं में इतना जटिल, गम्भीर और व्यापक है कि इसकी व्याख्या विवेचना ने एक स्वतन्त्र शास्त्र, स्वतन्त्र विज्ञान को जन्म दिया। आज हम जिसे 'मन्त्र-शास्त्र' अथवा 'मन्त्र - विज्ञान कहते हैं, वह वस्तुतः अध्यात्म की ही एक ( सर्वप्रमुख ) शाखा है।


परिभाषा : मन्त्र - विज्ञान | Paribhasha : Mantra Vigyan

मन्त्र-शास्त्र का प्रसङ्ग चलने पर स्वभावतः मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मन्त्र क्या है ? इस शास्त्र का विषय क्या है ? और, मानव जीवन में इनकी उपयोगिता क्या है ?


'मन्त्र' शब्द की व्याख्या में महर्षियों और व्याकरणाचायों ने बहुत कुछ कहा है। पृष्ठ के पृष्ठ इस शब्द की विवेचना में रंग गये हैं। किन्तु हम यहाँ पाठकों को


सुविधा के लिए उसे अति संक्षिप्त और सारगर्भित रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि उनको जिज्ञासा और अभिरुचि कुण्ठित न होने पाये इस पुस्तक का प्रणवन जन सामान्य की व्यक्ति और जटिल जीवन को देखते हुए यथा-सम्भव ऐन बोधगम्य रूप में किया जा रहा है, जिसकी सहायता सरलता अध्यात्म के प्रति पाठकों को जिज्ञासा, आया और अभिरुचि को अक्षुण्ण रख सके।


मन्त्र का ध्वनि से घनिष्ट सम्बन्ध है। कहा जा सकता है कि विज्ञान वस्तुतः ध्वनि-विज्ञान है। इस प्रकार मन्त्र की यह परिमाया हो सकती है किसी विशिष्ट ध्वनि समूह का उच्चारण ही मन्त्र है।' अथवा 'विभिन्न ध्वनियों के एक निश्चित समूह को मन्त्र कहते हैं।


मन्त्र का ध्वनि से सम्बन्ध इस प्रकार समझना चाहिए जब हम कुछ कहते है, तब उच्चारण के समय विभिन्न वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ मारे मुंह से निकलती है। ऐसे ही कुछ विशिष्ट वर्णों को जो एक निर्धारित क्रम से संग्रहीत होते हैं, उच्चारण करना 'मन्त्र' कहलाता है। लगातार बही मन्त्र उच्चारण करते रहने से वातावरण में उन ध्वनियों के संस्पर्श से, एक प्रकार का स्फोटजन्य विशेष प्रभाव उत्पन्न होता है। वही प्रभाव मन्त्र का परिणाम कहलाता है।


विश्व साहित्य में मन्त्रों के अनेक रूपणकार प्राप्त होते हैं, कारण कि समस्त संस्कृतियों में आध्यात्मिक शक्ति का अस्तित्व स्वीकार किया गया है और उस पर आस्था के प्रतीक कुछ न कुछ मन्त्र भी अवश्य रचे गये हैं। सभ्य और संस्कृत जातियों में ही नहीं, जङ्गली जीवन व्यतीत करने वाली, असभ्य और बर्बर कही जाने वाली आदिम जातियों तक में मन्त्रों का प्रचार है। अनेक विद्वानों-पर्यटकों ने खोज करके अपनी अनुभूतियों में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि 'आदिम, असभ्य और बबर कही जाने वाली बनवासी जनजातियों में भी मन्त्र साधना प्रचलित है। उनके मन्त्र दुर्योध किन्तु अद्भुत प्रभावशाली हैं। उन मन्त्रों के प्रयोग द्वारा वे जब-विज्ञान को दन कर देने वाले चमत्कार कार्य कर दिखाते हैं।

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अपनी प्रभावजन्य-व्यानकता के कारण मन्त्र' शब्द अनेकार्थी रूप में प्रचलित है। विश्व का कोई भी विषय और क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। धर्म ग्रन्थों में मन्त्र शब्द की विवेचना कुछ ऐसे रूपों में प्राप्त होती है

  • चित्त की एकदचिन्तन-प्रक्रिया कात्मक रूप ही मन्त्र है
  • देवता के सूक्ष्म शरीर का नाम मन्त्र है।
  • इष्टदेव की कृपा का दूसरा रूपमन्त्र है।
  • जिस शब्दाशब्द-समूह के उच्चारण से अर्थात् जिस शब्द-शक्ति के द्वारा देवी शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त हो सके, उसे मन्त्र कहते हैं।
  • शिव, शक्ति और आत्मा का एकीकरण करने वाला चिन्तन मन्त्र' कहलाता है ।
  • वह शब्द-शक्ति जो मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हेतु कर्तव्य की प्रेरणा देती है, मन्त्र कहलाती है।
  • ज्ञान का बोध और आत्म-शक्ति का उद्भव करने वाली विद्या मन्त्र कहलाती है। इन विभिन्न बिन्दुओं से हम इसी लक्ष्य पर पहुँचते हैं कि कुछ विशिष्ट वर्णों की ध्वनि विशेष (उन वर्णों का सामूहिक उच्चारण), जो हमारा मानसिक नियमन करके आध्यात्मिक ( आत्मिक अथवा अलौकिक ) शक्ति को जाग्रत करती है, 'मन्त्र' कहलाती है।


मन्त्र और संगीत | Mantra aur Sangeet

मन्त्र को विशिष्टता और उसके उच्चारण प्रभाव को विवेचना से स्पष्ट होता है कि मन्त्र वस्तुतः स्वर अथवा नाद-विज्ञान का सार तत्व है। संगीत के लिए भी यह सर्वसम्मत मान्यता है कि वह नाद-विज्ञान का प्रमुख अङ्ग है। इस प्रकार नाद विज्ञान की सीमा में आने के नाते मन्त्र और संगीत में पारस्परिक सम्बन्ध स्वयं सिद्ध हो जाता है ।


संगीत का प्रभाव सर्वविदित है। मानवीय मनोभावों, जैसे- क्रोध, शोक, जुगुप्सा, हर्ष, विस्मय, करुणा तथा औदास्य आदि को उद्दीप्त करने में सङ्गीत का महत्व निर्विवाद है। अनेक प्रकार के वाद्ययन्त्र भी इसी कारण उपयोगी माने जाते है कि उनके द्वारा नाद-प्रभाव की वृद्धि होती है।


किन्तु संगीत और मन्त्र को तुलना की जाए तो दोनों पर्याप्त भेद दृष्टिगत होते हैं। संगीत में विस्तार है, प्रचारात्मकता है, जनसम्पर्क और प्रदर्शन की अनिवार्यता है, मन्त्र-साधना का रूप इसके सबंधा विपरीत है। मन्त्र अति सूक्ष्म, गुप्त और एकान्त स्थान में प्रयोजनीय होते हैं। प्रभाव-साम्य होने पर भी दोनों का बाह्यरूप दोनों की साधना पद्धति में धरती-आकाश का अन्तर है। इस अन्तर को साम्य-सीमा में रखते हुए हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि संगीत और मन्त्र के मध्य वही अन्तर है, जो एक विशाल पुष्पराशि और एक बूंद मधु के बीच होता है। क्षमता और प्रभाव अभिव्यक्त दोनों ही दृष्टियों से मन्त्र, संगीत की अपेक्षा गुरुतर होता है।

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