मन्त्र-विद्या का इतिहास | Mantra Vidya ka Itihas
उद्भव और विकास | Origin and Development
Mantra | मन्त्रों का सर्वप्रथम रचनाकार कौन था और उसके अस्तित्व का समय क्या है ? यह प्रश्न आज भी मत-वैमिन्य का पोषण कर रहा है। इसका निविवाद, निश्चित उत्तर अभी तक नहीं खोजा जा सका।
विश्व-वाङ्मय का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद माना जाता है। उसे मन्त्रों का महाकोश कहा जा सकता है। ऋग्वेद के पश्चात् कालान्तर में सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद नामक तीन और वेदों की रचना हुई। ये चारों हो वेद मन्त्रों के महासागर है। इस विपुल मन्त्र साहित्य को देखकर सहज धारणा बनती है कि मन्त्रों की रचना वेदों से भी बहुत पहले से हो चुकी होगी, इन्हीं मन्त्रों के सङ्कलन से वेदों के कलेवर निर्मित हुए हैं।
शोधकों ने भी प्रतिपादित किया है कि वेदों के रचनाकाल तक मन्त्र साहित्य का पर्याप्त विकास हो चुका था। उसमें सौष्ठव और प्रौढ़ता का प्राचुर्य था और मन्त्र उस समय तक सांस्कृतिक जीवन के अङ्ग बन गये थे। वेदों के बाद संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रन्थों में भी मन्त्रों की प्रतिष्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती रही। पौराणिक काल में तो जप-तप के अगणित सन्दर्भ मिलते हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में मत्र-साधना को आधारशिला का रूप दिया गया है।
मन्त्रों में अनेक प्रकार की शक्तियों समाहित रहती हैं, अतः वे बहु-प्रचलित थे। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग के लिए तो वे जीवन, जीविका और ज्ञान के प्रमुख अङ्ग थे ही, क्षत्रिय वर्ग भी उनकी साधना-सिद्धि में पर्याप्त रूचि लेता था। पढ़ने-सुनने में*चात अविश्वसनीय संदिग्ध प्रतीत होती हैं, पर यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि आज का भौतिक विज्ञान अपने यान्त्रिक माध्यमों से भी जो कुछ नहीं कर पा रहा, वह सब उस समय मन्त्र-शक्ति के प्रयोग से सरलतापूर्वक हो जाता था। आज के उपग्रह और राकेट अन्तरिक्ष यात्रा तथा ग्रह-विजय करके भौतिक विज्ञान का जय-जयकार भले ही कर रहे हों, राडार, मशीनगन और अणुबम की भयावहता अपनी सर्वनाशो शक्ति का पोर वैज्ञानिक स्वर में उद्घोष कर रही हो, पर मन्त्र शक्ति की तत्कालीन उपलब्धियों से तुलना करने पर यह सब नितान्त क्षुद्र प्रतीत होते हैं, उनके सामने बोने लगते हैं- सर्वथा नगण्य |
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हास में भी अस्तित्व सुरक्षित | | Haas mein bhee astitv surakshit
भारतीय गणित-विज्ञान (ज्योतिष) के विभाजनानुसार, सतयुग, त्रेता ओर द्वापर के बाद कलियुग का प्रारम्भ हुआ। मन्त्रों के उद्भव और विकास का समय वैदिक काल कहलाता है। सतयुग इसी वैदिक काल का अन्तिम चरण था। इसके बाद त्रेता और द्वापर की गणना पौराणिक काल में होती है। द्वापर के साथ ही पौराणिक काल समाप्त होकर कलियुग का प्रादुर्भाव हुआ। वही कलियुग वर्तमान युग है। यह बारम्भ से ही, अध्यात्म की ओर से क्रमशः पराङ्मुख होता हुआ, भौतिकता की ओर उम्मुख रहा है। और इसी का परिणाम है कि आज हम अपने को सम्पता के, भौतिक विज्ञान की प्रगति के चरम-शिखर पर आसीन होने का दम्भ कर रहे हैं।
कोई भी रीति-रिवाज, परिपाटी, नियम, धारणा और विश्वास सहसा एक दिन में विकसित नहीं होते और न हो वे एक दिन में सर्वथा लुप्त हो जाते हैं। अतः द्वापर की समाप्ति और कलियुग का प्रारम्भ होने पर भी सांस्कृतिक विचारधारा और आध्यात्मिक मान्यताएं एकबारगो समाप्त नहीं हुई थीं, पीछे वाले युग का प्रभाव पर्याप्त समय तक आगामी युग को भो स्पर्श करता रहा। फलतः द्वापर की समाप्ति के बाद भी, कलियुग में शताब्दियों तक मन्त्र विद्या स्पष्ट रूप में प्रचलित रही। इतिहास-प्रन्थ बताते हैं कि मुहम्मदगोरी के आक्रमण तक भारत में मन्त्रज्ञ विद्वानों की प्रचुरता थी। बाद में, यवन-शासन की स्थापना से कुछ ऐसा धार्मिक सांस्कृतिक टकराव उत्पन्न हुआ कि भारतीय अध्यात्म का प्रभाव घटने लगा। उसके पोषक प्रचारक कम होते गये और मन्त्रों को सख्या भी तीव्र गति से घटने लगी। जो शेष रहे, वे सार्वजनिक जीवन से तटस्थ होकर गिरि-गहरों में श्मशानों अथवा वनों में रहते हुए एकान्तिक साधना करने लगे। निरन्तर बढ़ती जा रही भौतिकता और तज्जन्य अनास्था ने समाज में स्वार्थ, कुत्सा और अनैतिकता की प्रगति के द्वार खोल दिये थे। ऐसी स्थिति में, मन्त्रज्ञों ने इस विद्या को सुरक्षित रखने के लिए गोप्य बना दिया। वैसे भी, अस्तित्व रक्षा और शुचिता तथा प्रभाव-सम्बर्धन के लिए इस विद्या पर गोपनीयता का आवरण डाले रहने का विधान व्यवहारिक था ।
विश्व-व्यापी आयाम | Vishv-Vyaapee Aayaam
मन्त्र विद्या थोडे-बहुत रूपान्तर के साथ समस्त विश्व में प्रचलित थी। अद्भुत ओर अचूक शक्ति पर सभी सम्प्रदायों के आचार्य आश्वस्त थे । अतः इसकी किसी न किसी रूप में मन्त्र-साधना सर्वत्र प्रचलित थी।
मानव के अन्तःकरण को स्थिर और सबल बनाने में मन्त्र-शक्ति को अत्यधिक सक्षम पाया गया है। यह एक अनुभव-सिद्ध सत्य है कि स्थिरता की मनोदशा में मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ जाती है। अस्थिर, उचटे हुए मन से किया गया कार्य न तो पूरा होता है, न उसमें सफलता मिलती है। अतः मन्त्र-शक्ति द्वारा स्थिरता प्राप्त हो जाने पर, जटिल और असम्भव प्रतीत होने वाले कार्य भी सरलता से सम्पन्न हो जाते हैं।
आवश्यकतानुसार आरोग्य, ज्ञान, भौतिक-समृद्धि, धन-वैभव आदि की प्राप्ति और आपदा-निवारण, जैसे- भूकम्प, उल्कापात, अतिवृष्टि, अकाल, अग्नि, हिंसक पशु शत्रु, दस्यु महामारी आदि से त्राण के लिए मन्त्रों का प्रयोग किये जाने के प्रसङ्ग थोड़े बहुत रूपान्तर से न केवल भारतीय धर्मग्रन्थों में, वरन् विश्व के अनेक धर्मग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यह ब्रह्म विद्या बाज भी विभिन्न नाम-रूप में, सर्वत्र प्रचलित है। यों इसका अस्तित्व कुछ न कुछ सभी देशों में है, परन्तु इसके सर्वाधिक उपासक और प्रयोगकर्ता तिब्बत और भारत में हैं। यथार्थ तो यह है कि जो देश भौतिक विज्ञान में जिसने पिछड़े हैं, वे आध्यात्मिक ज्ञान में उतने ही आगे हैं। सभ्य देशों के नागरिक उन्हें अन्धविश्वासी और पुरातन-पत्थी कहें यह बात अलग है, पर उन तथाकथित अन्ध-विश्वासियों की आध्यात्मिक उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता ।
प्रायः समस्त दक्षिण-पूर्वी एशियाई भूखण्ड, जिसके अन्तर्गत आसाम वर्मा, जावा, सुमात्रा, थाई और चीन आते है, में आज भी ब्रह्म-विद्या ( अध्यात्म ) के ऐसे-ऐसे दिग्गज विशेषज्ञ मौजूद हैं, जो अकल्पित घटनाओं को प्रत्यक्ष कर दिखाते हैं। इसी का प्रभाव है कि अब अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी ओर इण्ड जैसे भौतिक सभ्यता के अन्धानुयायी देश भी अध्यात्म के प्रति अनिरूचि दिखाने लगे हैं। भोतिकता की चकाचौंध और फोलाइलकारी प्रगति में उन्हें पीड़ा का एक प्रकार के अज्ञात सन्त्रास का अतृप्ति का अनुभव हो रहा है, फलतः वे शान्ति और तुष्टि के लिए अध्यात्म की ओर उन्मुख हुए हैं। पिछली दो दशाब्दियों में कितने ही विद्वान अपने सभ्य सम्पन्न देशों से यहाँ, इस गरीब और पिछड़े हुए देश भारत में आकर यहाँ को प्राचीन
संस्कृति का, भारतीय धर्म-दर्शन और अध्यात्म का अध्ययन करने लगे हैं। आज तिने ही भारतीय ब्रह्मज्ञानी, योगी, सन्त और विद्वान विदेशों में सादर आमन्त्रित होते हैं। वहां जाकर उन लोगों ने अनेक प्रकार के परीक्षणों द्वारा प्रमाणिक कर दिया है कि ब्रह्मविद्या संबंधा असंदिग्ध, सक्षम, विज्ञान-सम्मत और सृष्टिमात्र के लिए कल्याणकारक है।
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संक्षेप में हम कह सकते हैं कि उद्भव और विकास के पश्चात् ह्रासशील होकर भी भारतीय अध्यात्म निःशेष नहीं हुआ। उसका अस्तित्व आज भी पूर्णतया जीवन्त और सशक्त रूप में प्रत्यक्ष है। हाँ, इतना परिवर्तन अवश्य हो गया है कि जहाँ एक समय यह विद्या देशव्यापी थी, वहीं अब इसका क्षेत्र नितान्त संकुचित रह गया है। अब वह बहुप्रचलित न होकर मात्र गिनेचुने मर्मज्ञों के मस्तिष्क में ज छिपी है, जो उसकी अस्तित्व रक्षा और पोषण के लिए भौतिक जगत के कोलाहल से यथा सम्भव दूर एकान्तवास कर रहे हैं।
सुप्रसिद्ध] यूरोपियन पर्यटक पाल श्रेण्टन ने अपनी पुस्तक 'सर्च ऑफ सीक्रेट इण्डिया' में अनेक ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिनका वह प्रत्यक्षदर्शी था। उसके द्वारा लिखित विवरण भारतीय अध्यात्म, तन्त्र-मन्त्र, योग दर्शन और साधु-तपस्त्रियों की अद्भुत क्षमता तथा अलौकिक प्रभाव पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। एलिस एलिजावेथ नामक एक अन्य लेखक ने भी स्वीकार किया है कि मैंने तिब्बत-भारत यात्रा के दौरान तिब्बती लामाओं द्वारा, मन्त्र-शक्ति के बल पर वर्षा को रोक देने की चमत्कारपूर्ण घटना स्वयं अपनी आंखों देखी थी। महा पण्डित राहुल सांकृत्यायन के संस्मरणों में तो ऐसी घटनाओं की भरमार है।
जैसा कि प्रारम्भ में लिखा जा चुका है, मन्त्र का अर्थ है- ध्वनि। ध्वनि की अद्भुत क्षमता को आज के वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं। ध्वनि का एकरूप सङ्गीत है जो अपने प्रभाव से श्रोता में उत्तेजना फ्रोध, शोक, तन्मयता, विधि और अनुराग का संचार करता है। ध्वनि का ही एक प्रभाव वह है, जो मानसिक तनाव, अनिद्रा, अस्थिरता, भय, भ्रम और उन्माद उत्पन्न करता है। इसी प्रतिक्रिया को देखकर आज के वैज्ञानिक सभ्य सम्पन्न नगरों में व्याप्त 'ध्वनि प्रदूषण' का नि खोज रहे हैं-आशय यह है कि मन्त्र शक्ति से कुछ भी किया जा सकता है- संपोषण भी, सर्वनाश भी।
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