जन्माष्टमी Janmashtami

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janmashtami

कृष्णजन्माष्टमी |  Janmashtami  भगवान श्री कृष्ण जो की विष्णु के आठवे अवतार थे उनका जनमोत्सव है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद्गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं।Happy Janmashtami, Krishna Janmashtami, Happy Janmashtami Images, Happy Krishna Janmashtami, Shrikrishna Janmashtami
जन्माष्टमी को भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में जन्म लिया। इसलिये भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जाता है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। जन्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का भी आयोजन होता है।

कृष्ण जन्माष्टमी पर भक्त भव्य चांदनी चौक, दिल्ली (भारत) की खरीदारी सड़कों पर कृष्णा झूला, श्री लड्डू गोपाल के लिए कपड़े और अपने प्रिय भगवान कृष्ण जी की प्रतिमा खरीदते हैं। सभी मंदिरों को खूबसूरती से सजाया जाता है और भक्त आधी रात तक इंतजार करते हैं ताकि वे देख सकें कि उनके द्वारा बनाई गई खूबसूरत खरीद के साथ उनके बाल गोपाल कैसे दिखते हैं।
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जन्माष्टमी उपवास के बारे में | Janmashtami Upvas

अष्टमी दो प्रकार की है: - पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि द्वापरयुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें।

भविष्य पुराण का वचन है: - भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी।

वसिष्ठ संहिता का मत है: - यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं

विष्णु धर्म के अनुसार: आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें।
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जन्माष्टमी को मोहरात्रि क्यों कहा जाता है। | Janmashtami ko Mohratri kyo kaha jata hai

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सुविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त कर लेंगे।

ब्रजमण्डल में श्रीकृष्णाष्टमी के दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् "दधिकांदौ" श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्री विग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाब जल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

जन्माष्टमी व्रत, सभी व्रतों में सर्वोत्तम है। | Janmashtami Vrat, Sabhi Vrat mai sarvuttam hai.

जानिए महत्व और मुहूर्त के बारे मे। |  Mahatva aur Mahurat

श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि शास्त्रों में इसके व्रत को 'व्रतराज' कहा जाता है। इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है।

अगर भक्त पालने में भगवान को झुला दें, तो उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में होने के कारण इसको कृष्ण जन्माष्टमी कहते हैं। चूंकि भगवान श्रीकृष्ण का रोहिणी नक्षत्र में हुआ था, इसलिए जन्माष्टमी के निर्धारण में रोहिणी नक्षत्र का बहुत ज्यादा ध्यान रखते हैं।

इस दिन श्रीकृष्ण की पूजा करने से संतान प्राप्ति, दीर्घायु तथा सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाकर हर मनोकामना पूरी की जा सकती है। जिन लोगों का चंद्रमा कमजोर हो वे आज विशेष पूजा से लाभ पा सकते हैं।

शास्त्रों के अनुसार, भगवान कृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। इस दिन वृष राशि में चंद्रमा व सिंह राशि में सूर्य था। इसलिए श्री कृष्ण के जन्म का उत्सव भी इसी काल में ही मनाया जाता है। लोग रातभर मंगल गीत गाते हैं और भगवान कृष्ण का जन्मदिन मनाते हैं।
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सुन्दर वर के लिए इस मंत्र का करे जाप। |  Sunder Van ke liye is mantra ka Jaap kare

कान्हा जैसा वर पाने के लिए गोपियों ने किया था इस मंत्र का जाप। जिन कन्याओं का विवाह नहीं हो रहा हो या विवाह में विलंब हो रहा हो, उन कन्याओं को श्रीकृष्ण जैसे सुंदर पति की प्राप्ति के लिए माता कात्यायनी के इस मंत्र का जप वैसे ही करना चाहिए जैसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए गोकुल की गोपियों ने किया था।

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरू ते नम:।।

लव-मैरिज करना चाहते हैं तो पढ़ें यह विशेष मंत्र जन्माष्टमी पर। |  Love Marriage karne ka Vishesh Mantra

जिन लड़कों का विवाह नहीं हो रहा हो या प्रेम विवाह में विलंब हो रहा हो, उन्हें शीघ्र मनपसंद विवाह के लिए श्रीकृष्ण के इस मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए।

कान्हा का यह मंत्र प्रेमियों के लिए वरदान है। इस मंत्र से प्रेमियों की राहें आसान होती है और शीघ्र विवाह के अवसर बनते हैं।

क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

गृहकलह से परेशान हैं तो यह मंत्र आपके लिए हैं लाभ दायक।

श्रीकृष्णाष्टमी का व्रत करने वालों के सब क्लेश दूर हो जाते हैं। दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ इस मंत्र का अधिकाधिक जप करें :
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कृष्णायवासुदेवायहरयेपरमात्मने। प्रणतक्लेशनाशायगोविन्दायनमोनम:॥

इससे परिवार में खुशियां वापस लौट आएंगी। इस मंत्र का नित्य जप करते हुए श्रीकृष्ण की आराधना करें।

जन्माष्टमी पर जरूर पढ़ें कान्हा के 108 नाम। Janmashtami per zarror padey Kanah Ji ke 108 Naam

माखनचोर, नंदकिशोर, मनमोहन घनश्याम रे, कितने तेरे रूप रे, कितने तेरे नाम सच में कान्हा का जितना रूप सलोना है उतने ही आकर्षक उनके नाम है। आइए जन्माष्टमी के शुभ पर्व पर उनके 108 नामों का वाचन करें।


ॐ, कन्हैया, कृष्ण, केशव, चक्रधारी, नंदलाल, माधो, श्याम-सुन्दर, मुरारी, राधावर, बन्सी बजैया, रघुबीर, नटवर, नन्दन, गजाधर, अमर, अजर, अविनाशी, नरोत्तम, अर्जुन-सखा, सांवरिया, सांवला, गोपाल, दामोदर, बृजनाथ, दयालु, दीनबंधु, जगदीश, दीनानाथ, जगत पिता, वामन, यशोदालाल, नारायण, बिहारी, मदनमोहन, कृपानिधि, सर्वरक्षक, ईश्वर, सर्वशक्तिमान, सर्व व्यापक, मन हरन, बांकेबिहारी, गोपानाथ, बृजवल्लभ, गोवर्धनधारी, घनश्याम, परमानन्द, पतितपावन, ज्योतिस्वरूप, राधारमण, माधव, मधुसूदन, रघुपति, हरि, मुरली मनोहर, श्याम, कल्याणकारी, अनन्त, परमपिता, प्रभु, परम पवित्र, गोसाईं, भगत वत्सल, वसुदेव, परमात्मा, दुखहरता, विधाता, निरंजन, काली नाग नथैया, अभय, अन्तर्यामी, सर्वाधार, अद्वैत, घट घट के वासी, दीनानाथ, दाता, परमेश्वर, रमणीक, निराकार, निरविकार, अच्युत, न्यायकारी, जगतकर्ता, त्रिभुवननाथ शंकर, विष्णु, सत्यनारायण, ज्योति स्वरूप, रसिक बिहारी, ब्रह्म, संहरता, पालन करता, स‍तचित आनंद स्वरूप, केशव, गोपीवल्लभ, राधेश्याम, सत्य स्वरूप, आनंद दाता, दयालु, कल्याणकारी,‍ विश्वकर्ता, परमानन्द, स्वामिन।

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Shree Krishna ki Pooja aur Mantro ka aap ke Jivan mai Prabhav 

श्री कृष्ण पूजा के 6 आश्चर्यजनक लाभ, जानते है इन मंत्रों से।

श्री कृष्ण पूजन का हर शास्त्र में विशेष महत्व बताया गया है। आइए 6 विशेष मंत्रों के माध्यम से जाते है श्रीकृष्ण का ध्यान लगाने से उनके पूजन से, उनकी आराधना से।

श्री शुकदेवजी राजा परीक्षित्‌ से कहते हैं।
सकृन्मनः कृष्णापदारविन्दयोर्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्‌ स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः॥

जो मनुष्य केवल एक बार श्रीकृष्ण के गुणों में प्रेम करने वाले अपने चित्त को श्रीकृष्ण के चरण कमलों में लगा देते हैं, वे पापों से छूट जाते हैं, फिर उन्हें पाश हाथ में लिए हुए यमदूतों के दर्शन स्वप्न में भी नहीं होते।

अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः
क्षिणोत्यभद्रणि शमं तनोति च।
सत्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम्‌॥

श्रीकृष्ण के चरण कमलों का स्मरण सदा बना रहे तो उसी से पापों का नाश, कल्याण की प्राप्ति, अन्तः करण की शुद्धि, परमात्मा की भक्ति और वैराग्ययुक्त ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति आप ही हो जाती है।

पुंसां कलिकृतान्दोषान्द्रव्यदेशात्मसंभवान्‌।
सर्वान्हरित चित्तस्थो भगवान्पुरुषोत्तमः॥

भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जब चित्त में विराजते हैं, तब उनके प्रभाव से कलियुग के सारे पाप और द्रव्य, देश तथा आत्मा के दोष नष्ट हो जाते हैं।

शय्यासनाटनालाप्रीडास्नानादिकर्मसु।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥

श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व समझने वाले भक्त श्रीकृष्ण में इतने तन्मय रहते थे कि सोते, बैठते, घूमते, फिरते, बातचीत करते, खेलते, स्नान करते और भोजन आदि करते समय उन्हें अपनी सुधि ही नहीं रहती थी।

वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्र-
शाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः।
ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ
तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम्‌॥

जब शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक आदि राजा वैरभाव से ही खाते, पीते, सोते, उठते, बैठते हर वक्त श्री हरि की चाल, उनकी चितवन आदि का चिन्तन करने के कारण मुक्त हो गए, तो फिर जिनका चित्त श्री कृष्ण में अनन्य भाव से लग रहा है, उन विरक्त भक्तों के मुक्त होने में तो संदेह ही क्या है?

एनः पूर्वकृतं यत्तद्राजानः कृष्णवैरिणः।
जहुस्त्वन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा॥

श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाले समस्त नरपतिगण अन्त में श्री भगवान के स्मरण के प्रभाव से पूर्व संचित पापों को नष्ट कर भगवद रूप हो जाते हैं,
अतएव श्रीकृष्ण का स्मरण सदा करते रहना चाहिए।
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जन्माष्टमी की कथा

इंद्र ने कहा है: हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी से प्रिय वाणी में कहा- हे कान्ते! इस प्रकार तुम क्यों विलाप कर रही हो। अपने रोने का कारण मुझसे बताओ। तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा हीहोगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कलियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया।

इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र!

कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप बलदेवजी सुदर्शन चक्र लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर आए। उन्हें आता देख बालक कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को उनसे लेकर स्वयं गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।
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जन्माष्टमी मनाने की विधि |  Janmashtmi Mannae ki Vidhi

इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है?

नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें।

हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें।

यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात 'मत्स्य कूर्म' इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें।

जन्माष्टमी के पूर्ण की विधि | Janmashtami ki Puri Vidhi


उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें। 

ममाखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥

अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए।

फिर निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें- 'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।

वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।

अंत में प्रसाद वितरण कर भजन-कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करें।

मथुरा नगरी :जहां रचाया मोहन ने रास

भारत की धरती पर युगों से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा को पर्यटन का जनक कहा जा सकता है। शायद इसीलिए 21वीं सदी में भी तीर्थाटन हमारे यहां एक जीवंत परंपरा के रूप में विद्यमान है। पिछले दिनों ऐसी ही किसी जगह जाने का मन बना तो हमने ब्रजभूमि की घुमक्कड़ी का कार्यक्रम बना लिया। फाल्गुन मास शुरू होते ही ब्रज में रंगों की अनोखी छटा बिखरने लगती है और उल्लास के उस माहौल में ब्रज की यात्रा का अपना अलग ही आनंद है। ब्रज यात्रा की तैयारी के दौरान हमने मथुरा और वृंदावन के अलावा ऐतिहासिक शहर आगरा को भी अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया।
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श्री कृष्ण की क्रीड़ा स्थली 


योगेश्वर कृष्ण की क्रीड़ा स्थली को ही लोक में ब्रजभूमि की संज्ञा दी गई है। पुराणों के अनुसार इसमें बारह वन, चौबीस उपवन और पांच पर्वतों का समावेश था। लगभग चौरासी कोस में फैली इस भूमि पर ही कृष्ण ने कहीं गायें चराई थीं, कहीं राक्षसों का नाश किया और कहीं गोपियों के संग रास रचाया था। मान्यता है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाथ ने यहां कृष्ण से जुड़े हर स्थान पर भव्य मंदिर बनवाए थे और उनमें कृष्ण के विभिन्न विग्रहों की स्थापना की, तब से यह क्षेत्र ब्रज, ब्रजधाम या ब्रजभूमि कहलाने लगा। इसके मध्य में स्थित है मथुरा, जहां से हमने अपनी यात्रा की शुरुआत की।

प्राचीन सप्तपुरियों में से एक ‘मथुरा’ कृष्ण के जन्म से पूर्व राजा बलि, राजा अमरीश और भक्त ध्रुव की भी तपस्थली रही थी। इसका प्राचीन नाम मधुरा था। तब यहां मधु नामक दैत्य का प्रभाव था। गौ पालन के लिए इस क्षेत्र को उपयुक्त जानकर यदुवंशियों ने इसे मधु दैत्य से मुक्त कराया और कालांतर में यही स्थान प्रतापी राजा शूरसेन की राजधानी बना। जिनके वंशज उग्रसेन थे। उग्रसेन के पुत्र कंस के अत्याचारों से त्रस्त इस धरती को तारने के लिए ही श्रीकृष्ण ने यहां अवतार लिया था।

मथुरा नगरी मे बिखरी रंगों की घटा।  

मथुरा में सबसे पहले हम वही स्थान देखने पहुंचे जिसे भगवान श्रीकृष्ण का जन्म स्थान माना जाता है। वहां आज एक विशाल मंदिर है, जो जन्मभूमि के नाम से विख्यात है। कहते हैं, इसी स्थान पर वह कारागार था जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उस स्थान पर पहले केशवदेव मंदिर था। कड़े सुरक्षा इंतजाम के बीच से होकर हमने मंदिर में प्रवेश किया। अंदर पहुंच राधा-कृष्ण मंदिर के दर्शन किए और फिर एक ऐसे कक्ष में गए जो कारागार के समान है। इसकी दीवारों पर कृष्ण जन्म कथा का चित्रण है। इसे कटरा केशवदेव भी कहते हैं। जन्मभूमि परिसर में विशाल भागवत भवन है। जहां लक्ष्मी नारायण, राधाकृष्ण, जगन्नाथ जी, हनुमान जी और दुर्गा माता की मनोहारी झांकियां दर्शनीय हैं। कृष्ण जन्माष्टमी पर जगमगाते मंदिर के दर्शन करने के लिए यहां जनसैलाब उमड़ पड़ता है।

द्वारिकाधीश मंदिर में भी जन्माष्टमी पर बहुत भीड़ होती है। 1815 में निर्मित इस मंदिर में द्वारिकाधीश के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्ण चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। बायीं ओर रुक्मिणी जी की प्रतिमा है। मंदिर में सोने-चांदी के बड़े हिंडोले भी रखे हैं। सावन में यहां अलग ही नजारा होता है। उन दिनों मंदिर की आंतरिक सज्जा में रोज एक अलग रंग की बहुलता होती है। भगवान की पोशाकों के अतिरिक्त मंदिर के वातावरण में उसी रंग की छटा बिखरी होती है। इसे रंगों की घटा कहते हैं। नित नये रंग की घटा में भगवान का नित नया रूप नजर आता है।

मथुरा मे आरती यमुना मईया की |  Mathura mai Yamuna ki arti

मंदिर में दर्शन के बाद हम निकट ही स्थित विश्राम घाट पहुंचे। यमुना के तट पर यह मथुरा का प्रमुख घाट है। इसके अलावा यहां 24 घाट और हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण ने यमुना तट पर यहीं विश्राम किया था। इसी कारण 1814 में ओरछा के राजा वीरसिंह देव ने यहां घाट और मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया था। घाट पर तीन तोरण द्वार बने हैं। इन पर लटकी बड़ी-बड़ी घंटियों की आवाज हर समय गूंजती रहती है। घाट पर यमुना जी और श्रीकृष्ण के मंदिर के अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे मंदिर हैं। ब्रज आने पर चैतन्य महाप्रभु ने भी यहां प्रवास किया था। संध्या के समय यमुना तट पर आरती का सुंदर दृश्य देखते ही बनता है। यमुना की अथाह जलराशि पर तैरते दीपों की श्रृंखला और पानी में बनती इन्हीं दीपों की अनूठी छवि दृष्टि को बांध सी लेती है। शीतल और शांत हवा में घुलती इनकी गंध वातावरण में एक पवित्र मादकता सी भर देती है। यहां नौका विहार का आनंद भी लिया जा सकता है।

घाट से चलकर हम वापस बाजार में आ गए। धार्मिक वस्तुओं की दुकानों की चमक-दमक बाजार को भव्यता प्रदान कर रही थी। नन्हें से गोपाल और राधा-कृष्ण आदि की पीतल की चमकती मूर्तियां, सुनहरी गोटे से सजी सुंदर पोशाकें, मोती जड़े छोटे से मुकुट, सब कुछ मोहक लग रहा था। ऊंची-नीची गलियों में बने मकान देखकर लगता है कि यह वास्तव में पुराना शहर है। हर गली-कूचे में गायें बहुतायत में घूमती मिलेंगी। बाजारों में दूध और दूध की बनी वस्तुएं भी खूब बिकती हैं। मथुरा के पेड़े इन वस्तुओं में सबसे प्रसिद्ध हैं।
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स्तंभ पर अंकित गीता

अगले दिन सुबह हम शहर के बाहर की ओर स्थित बिरला मंदिर देखने गए। मंदिर में लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम और शंख व चक्र लिए भगवान श्रीकृष्ण की मोहक प्रतिमाएं हैं। एक स्तंभ पर गीता अंकित है। मंदिर की दीवारों पर चित्र तथा उपदेश भी अंकित हैं। इसे गीता मंदिर भी कहते हैं। इसके बाद हमने दाऊ जी मंदिर, गोवर्धन मंदिर, रंगेश्वर मंदिर, महादेव मंदिर और शक्तिपीठ चामुंडा देवी मंदिर भी देखे। मथुरा में एक राजकीय संग्रहालय भी है। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित कलात्मक वस्तुओं का भारी संग्रह है। यहां गुप्त और कुषाण काल की प्राचीन मूर्तियां और अन्य वस्तुएं भी प्रदर्शित हैं। मथुरा भ्रमण के दौरान हमें यहां के धर्मपरायण निवासी और उनकी मधुर ब्रज बोली ने बेहद प्रभावित किया।

वृंदावन |  Vrindavan ki Janmashtami

हमारा अगला गंतव्य था, कान्हा की अलौकिक लीलाओं की धरती वृंदावन। मथुरा से मात्र 11 किमी दूर इस पावन धाम पर वर्ष भर भक्तों का तांता लगा रहता है। यही वह स्थान है जहां गऊपालक के रूप में श्रीकृष्ण ने गऊ धन के महत्व का संदेश दिया। गोपियों और सखाओं के संग यहीं उनका बचपन बीता। वृंदावन में हमने एक धर्मशाला में ठहरने का इंतजाम किया। उसी धर्मशाला में एक पंडे ने बताया कि इस क्षेत्र में कभी वृंदा यानी तुलसी के वन थे। इसलिए इस स्थान को वृंदावन कहा जाता है। इन्हीं वनों में कन्हैया ने राधा और गोपियों के संग रास रचाया था। यह भी कहते हैं कि राधा के सोलह नामों में से एक वृंदा भी है। राधा का कृष्ण के प्रति भक्तिपूर्ण प्रेम ही आज यहां के लोगों की भक्ति का सार है। कालांतर में चैतन्य महाप्रभु, श्री हित हरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य और स्वामी हरिदास के पधारने से भी यह धरती पुण्य हुई।

वृंदावन का प्रमुख मंदिर बांके बिहारी जी हमारी धर्मशाला के निकट ही था। सबसे पहले हम वही मंदिर देखने पहुंचे। बांके बिहारी मंदिर एक संकरी सी गली में स्थित है। मंदिर में बांके बिहारी की प्रतिमा इतनी चित्ताकर्षक है कि उस पर से भक्तों की नजर ही नहीं हटती। इसलिए यहां थोड़ी देर बाद पर्दा डाला जाता है। बिहारी जी का यह मोहक विग्रह स्वामी हरिदास ने 1864 में निधिवन से लाकर यहां स्थापित किया था।

फाल्गुन माह से सावन माह के मध्य यहां आए सैलानियों को अक्सर एक अद्भुत नजारा मिलता है। जब भक्तिरस से विभोर भक्त नित नये फूल और मालाओं से मनोहारी बंगलों की रचना करते हैं। अद्भुत बंगलों के बीच विराजमान प्रभुविग्रह को देखकर ऐसा लगता है मानो साक्षात श्रीकृष्ण भगवान के ही दर्शन किए हों। श्रावण शुक्ल तृतीया पर स्वर्ण हिंडोला दर्शन, जन्माष्टमी पर मंगल आरती और अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन के मौके पर यहां दर्शनार्थियों की अत्यधिक भीड़ रहती है।

राधारानी कृष्ण  |  Radha Rani Krishna

वृंदावन में सैलानियों को श्रीकृष्ण भावना अंतरराष्ट्रीय संघ का कृष्ण बलराम मंदिर भी मनभावन लगता है। स्थानीय लोग इसे अंग्रेजों का मंदिर या एस्कॉन मंदिर भी कहते हैं। सफेद पत्थर से बने आलीशान मंदिर में राधा-कृष्ण, कृष्ण-बलराम तथा गौर-निताई की सुंदर प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाओं की पुष्प एवं वस्त्र सज्जा देखते ही बनती है। प्रांगण में दीवारों पर कृष्ण के जीवन से जुड़ी कईछवियां सुंदर ढंग से अंकित हैं। तमाम विदेशी यहां आकर वैष्णव धर्म की दीक्षा लेते हैं। मंदिर में एक ओर भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का समाधि मंदिर भी है।

विभिन्न मंदिरों के दर्शन के लिए हम रिक्शे से चल पड़े। होली का पर्व निकट होने के कारण बाजार में अबीर-गुलाल की दुकानें भी सजी हुई थीं। भक्ति संगीत की धुनों पर होली के गीत बज रहे थे। कृष्ण की बाल सुलभ लीलाओं के चित्र तो पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। यहां के लोग भी खानपान के बहुत शौकीन हैं। इस शौक का हिस्सा हैं पेड़े, खुरचन, कलाकंद, दूध और लस्सी। यह सब पर्यटकों को भी बहुत पसंद आता है। यहां एक विशेष बात और देखी कि यहां के निवासी नमस्ते की जगह राधे-राधे शब्द का प्रयोग करते हैं। दुकानदार भी अभिवादन के रूप में राधे-राधे कहते हैं।

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उपवन रासलीलाओं का |  Upvan Rasleela ka

इस मंदिर की वास्तुकला में दक्षिण की मंदिर वास्तुकला शैली का अधिक प्रभाव है। इसी शैली में बने मंदिर के तीन गौपुरम हैं। इसका निर्माण 1852 में हुआ था। मंदिर के प्रांगण में 60 फुट ऊंचा स्वर्ण स्तंभ भी है। यहां से कुछ ही दूर गोविंद देव मंदिर है। जयपुर के महाराजा द्वारा बनवाया गया यह मंदिर सात मंजिला था। उसकी चार मंजिलें औरंगजेब द्वारा गिरवा दी गई थीं। उस समय मंदिर में स्थित विग्रह को बचाने के लिए जयपुर पहुंचा दिया गया था।

प्राचीन मंदिर के पास ही एक नया मंदिर है। यमुना तट के निकट ललित कुंज में शाह जी का मंदिर है। सफेद संगमरमर का बना यह मंदिर ग्रीक-रोमन वास्तुशैली में निर्मित है। मंदिर के बारह खंभों पर उत्कीर्ण कला के नमूने दर्शनीय हैं। सेवाकुंज नामक स्थान जिसे निकुंजवन भी कहते हैं, राधा-कृष्ण की रास लीलाओं का उपवन माना जाता है। कहते हैं आज भी रात में यहां कृष्ण और राधा रास के लिए आते हैं। यहां बंदरों की भरमार है। निधिवन को राधा-कृष्ण की विश्राम स्थली बताया जाता है। यहां पंडित हरिदास की समाधि भी है। लगभग 400 वर्ष पुराना मदन मोहन मंदिर अपनी अलग शैली के कारण आकर्षित करता है। लाल पत्थर से बना यह मंदिर साठ फुट ऊंचा है। टीले पर स्थित इस मंदिर के पास एक छोटा आधुनिक मंदिर भी है।

शहर के बाहर स्थित पागल बाबा मंदिर भी अत्यंत भव्य है। सफेद पत्थर के बने इस मंदिर को पागल बाबा नाम से प्रसिद्ध संत ने बनवाया  था। वृंदावन में कालिया दह, चीर घाट, राधा वल्लभ मंदिर, राधास्मरण मंदिर और गोपीनाथ मंदिर भी दर्शनीय हैं।

अनोखी छटा महारास की |  Anokhi Chata Maharas ki

वृंदावन में साधु-संतों के अतिरिक्त तमाम विधवाएं भी नजर आती हैं। मुक्ति की चाह इन्हें यहां खींच लाती है। ये अपने जीवन के अंतिम दिन वृंदावन धाम में भजन-कीर्तन करते हुए व्यतीत करना चाहती हैं। इनमें से कुछ तो अपनी इच्छा से यहां आती हैं और कुछ को उनके परिवार वाले किसी आश्रम में व्यवस्था कर छोड़ जाते हैं। ईश्वर भक्ति ही इनकी दिनचर्या होती है। शाम के समय वृंदावन में हमें रासलीला देखने का अवसर मिला। यहां ऐसे कई स्थान हैं जहां अक्सर रासलीला का मंचन होता रहता है। ब्रज की इस लोककला में महारास का दृश्य वास्तव में देखने योग्य था। ब्रज भाषा में रासलीला के संवादों की भी अपनी अलग ही शैली है।
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बरसाने की होली  |  barsane ki Holi

वैसे तो पूरे भारत में होली का पर्व जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है पर ब्रज में होली की अलग ही धूम होती है। रंगों का यह उत्सव यहां एक महीने से भी अधिक चलता है। बसंत पंचमी के बाद से ही यहां होली का माहौल बनने लगता है। जैसे-जैसे होली निकट आती है वातावरण में रंगों का असर और चटख होता जाता है। अबीर और गुलाल की दुकानों से बाजार रंग-बिरंगे हो जाते हैं। मतवाले ब्रजवासी राह चलते किसी के भी माथे पर गुलाल लगा देते हैं। कोई इसका बुरा नहीं मानता। धीरे-धीरे पूरा ब्रज फाग के रंगों से सराबोर होने लगता है।

बरसाने की लट्ठमार होली का तो ढंग ही निराला है। तमाम लोग सिर्फ यही देखने यहां आते हैं। बरसाना राधा का गांव था और नंदगांव श्रीकृष्ण का। श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ राधा और गोपियों से होली खेलने यहां आते थे। उसी क्रम में फाल्गुन एकादशी पर नंदगांव से युवकों की टोली बरसाने आती है। ये बरसाने की स्ति्रयों पर रंगों की बौछार करते हैं तो वे जवाब में लाठियों की बरसात शुरू कर देती हैं। युवकों की टोली अपनी सुरक्षा के लिए ढाल साथ लाती है। इस होली का नजारा देखने के लिए छतों पर लोगों का हुजूम जुट जाता है। इस मौके पर यहां ठंडाई और भांग भी खूब छनती है। जगह-जगह होली के गीत बजते हैं। पूरा माहौल रंगों में भीग जाता है। इसके अगले दिन नंदगांव में होली खेली जाती है।

लट्ठमार होली का आयोजन |  Lathmar Holi 

बरसाना में ब्रह्मपर्वत पर राधाकृष्ण मंदिर, वृषभानु मंदिर और अन्य मंदिर देखे। हर जगह किसी न किसी रूप में कृष्ण, राधा और बलराम मंदिरों में विद्यमान हैं। पर्यटकों के लिए मथुरा में जन्मभूमि के प्रांगण में भी एक दिन लट्ठमार होली का आयोजन किया जाता है। इसमें भाग लेने के लिए बरसाना और नंदगांव से टोलियां आती हैं। ब्रह्मोत्सव, बसंत पंचमी, अक्षय तृतीया और हरियाली तीज पर भी ब्रज में बहुत भीड़ रहती है।

गोवर्धन परिक्रमा के मौके पर भक्तों की आस्था देखते ही बनती है। मीलों लंबे परिक्रमा पथ पर भक्तों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। वास्तव में ब्रज रज में ऐसा कुछ है कि जो एक बार यहां आता है वह बार-बार आना चाहता है। अगले दिन सुबह वृंदावन से आगरा के लिए प्रस्थान करने से पूर्व हम एक बार फिर बांके बिहारी के दर्शन करने पहुंच गए। वृंदावन की कुंज गलियों का राधा-कृष्णमय वातावरण हमें भी बांध रहा था। हम एक बार फिर वहां आने की इच्छा के साथ वहां से चल दिए।

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