साधना : कुछ प्रमुख तथ्य | Sadhana: Some Key Facts
संसार में प्रत्येक कार्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही व्यक्ति क्रियाशीन होता है। साधना के क्षेत्र में भी यही नियम है। साधक जो भी साधना करता है, उसके मूल में उसकी कोई आकाक्षा निहित रहती है, जिसकी पूर्ति के लिए वह साधना का मार्ग अपनाता है।
आध्यात्मिक साधना का मुख लक्ष्य है-आत्म-ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति । प्राणी (मानव) सांसारिक मायाजाल से मुक्ति पाकर ब्रह्मस्वरूप हो जाय, यही आध्या त्मिक साधना का प्रमुख उद्देश्य होता है। ब्रह्म स्वरूप होने को हो 'मुक्ति' अथवा 'मोक्ष प्राप्ति' कहा जाता है। किन्तु मोक्ष की प्राप्ति सहज सम्भव नहीं है। बड़े बड़े साधु-सन्त, ज्ञानी-ध्यानी और योगी-यती भी लक्ष्य प्राप्ति के पूर्व ही भटक जाते हैं। फिर भी जो जहाँ तक पहुँच जाय वही श्रेयस्कर है, इस भावना से साधकजन अध्यात्म के प्रति आस्थावान रहते हुए यथासम्भव साधना करते रहते हैं।
मानव शरीर में मन एक ऐसा अंश है, जो वैचारिक एवं क्रियात्मक सभी का संचालन एवं नियन्त्रण करता है। शरीर की गतिविधि, अङ्ग-सञ्चालन, स्पर्श गत अनुभव, लालसा की उत्पत्ति, मान-अपमान का बोध, दया क्षमा-क्रोध आदि की अनुभूति, यह सब उसी मन (चित्त) से सम्बन्धित है। व्यक्ति को सांसारिक माया जाल में आवद्ध करने वाला मुख्य कारक यही मन होता है। इसलिए मोक्षकामी साधक और आत्मज्ञान की प्राप्ति के इच्छुक ( योगी ऋषि-मुनि ) सब इसी मन को परास्त करने, इस पर नियन्त्रण पाने का प्रयास करते हैं। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है शरीर में मन ही प्रधान है, और उस मन को नियन्त्रित करना केवल ब्रह्म ज्ञान के वश में होता है। उस ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति ही ब्रह्मानन्द है।
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मन को वशवर्ती बनाकर ब्रह्मानन्द प्राप्त करने का प्रयास, आध्यात्मिक भाषा में 'पट्चक्र-भेदन' कहा जाता है। षट्चक्र की परिकल्पना इस आधार पर की गई है - शरीर का निर्माण जिन पाँच प्रमुख तत्वों से होता है, उसमें प्रत्येक एक चक्र का आधार है, और छठवाँ चक्र वही मन है- जो पाँचों तत्वों का अनुभूति केन्द्र है।
षट्चक्र-भेदन
अध्यात्म-साधना में सिद्धि प्राप्ति के लिए पट्चक्र भेदन अर्थात शरीर रचना के पांचों तत्वों और मन पर नियन्त्रण पाना, सबसे पहली आवश्यकता है। इसके लिए षट्चक्र और उनका कार्य क्षेत्र समझ लेना प्रासङ्गिक होगा ।
1. मूलाधार - मानव शरीर का यह प्रथम तत्व है। देह में मिट्टी का जो भी जश है, वह पृथ्वी से लिया गया है। अतः पृथ्वी के इस अंश को मानव शरीर का मूलाधार कहते हैं। शरीर का सारा स्नायु-मण्डल इसी पर आधारित है।
2. स्वाधिष्ठान- शरीर में निहित जल-तत्य को स्वाधिष्ठान कहते हैं। रक्त, मांस, मज्जा, कोमलता और आद्रता का कारण यही जल तत्व होता है।
3. मणिपूर - साप और तेजस्विता का जो भी अंश शरीर में व्याप्त होता है, वह अग्नितत्व का सूक्ष्म रूप है। अग्नि का प्रमुख गुण है ताप तेजस् और प्रकाश । 'मणि' शब्द प्रकाश का पर्याय है, इसी सङ्गति के आधार पर शरीर में व्याप्त अग्नि तत्व को 'मणिपूर' कहा जाता है।
4. अनाहत -वायुतत्व, जो शरीर में अङ्ग सञ्चालन, श्वसन क्रिया, श्रम कार्य, गन्ध-बोध आदि में क्रियाशील होता है - अनाहत कहलाता है। स्वरोच्चारण, वक्तृता, चीत्कार, ध्वनिग्रहण ( श्रवण-शक्ति ), उच्छ्वास और क्लान्ति निवारण में इसी अनाहत तत्व की प्रमुखता होती है।
5. शून्य - आकाश तत्व के रूप में शरीर को स्थिति देने का प्रमुख कारक यही शून्य तस्व है। शून्य न होता तो शरीर कहाँ स्थित होता ? प्रकारान्तर से यह समस्त वायुमण्डल अथवा ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त रूप और शरीर की स्थिति का प्रमुख आधार है।
6. आज्ञावक - शरीर का नियन्त्रक मन अर्थात् चित्त जहाँ निवास करता है उसे आज्ञाचक्र की संज्ञा दी गई है। ईश्वरीय-आज्ञा प्रकृतिदत्त प्रेरणाएं और अज्ञात संकेत इसी अज्ञाचक्र में स्थित मन को प्राप्त होते हैं। तदनुसार वह शरीर की रक्षा अथवा आवश्यकता पूर्ति के लिए इन्द्रियों को आज्ञा देता है। पैर में कांटा चुभ जाने पर जीवात्मा ( प्राण, जो ईश्वर ब्रह्म का अंश है) चित्त को संकेत देती हैं. कि देखो तो पैर में कुछ चुभ रहा है। उसकी आज्ञा पर चित्त तुरन्त आँखों को आज्ञा देता है कि देखो तो, क्या है? फिर हाथों से कहता है -निकाल दो उसे झटपट !
कैसी त्वरापूर्ण अवस्था है ! कितना कठिन अनुशासन है शरीर रूपी साम्राज्य में ! यहाँ प्रमाद, बालस्य, भ्रष्टाचार और दलबन्दी की तनिक भी गुआइश नहीं। इन्द्रिय-रूपी सभी कर्मचारी पूरी निष्ठा और सजगता से कार्यरत रहते हैं। यदि किसी ने तनिक भी आलस्य दिखाया तो समस्त प्रशासन, शरीर रूपी साम्राज्य, रुग्ण आहत, छित्र अथवा निष्प्राण हो जाता है।
इस प्रकार प्रमाणित होता है कि शरीर के संचालन और व्यवस्था- सुरक्षा में मन अर्थात् चित्त को ही वरीयता प्राप्त है। अध्यात्म की भाषा में यही मन अथवा चित्त आज्ञाचक्र' कहलाता है।
पट्चक्र भेदन का आशय है. उपरोक्त व्यवस्था पर नियन्त्रण कर लेना । अर्थात् शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग, समस्त तत्व और मन को दमित करके, उनको ब्रह्म मे केन्द्रित करना। यह अति जटिल प्रक्रिया है। विरले साधक ही इसमें सफल हो पाते हैं। जो सफल हो जाते हैं, उन्हें ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मलीन, मुक्त, मोक्षप्राप्त अथवा साक्षात ब्रह्म (ईश्वर) कहा जाता है।
सिद्धि के अनेक भेदों में सर्वश्रेष्ठ सिद्धि यही मानी जाती है- मोक्ष प्राप्ति । किन्तु यह एक अति दुर्गंभ उपलब्धि है। प्राचीन काल में भी जब कि युग सात्विक और अध्यात्ममय था, उस सिद्धि की प्राप्ति सहस्रों साधकों में किसी एक को हो पाती थी। तब आज के इस भौतिक युग में, जबकि कुस्सा और दुर्गुण ही सर्वत्र व्याप्त हैं मोक्ष प्राप्ति केवल कल्पना का विषय रह गया है।
षट्कर्म
संसार वस्तुतः ससार है। इसमें भौतिकता का आधिक्य होना सहज स्वाभा विक है। ब्रह्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के प्रसङ्ग इने-गिने ही आते हैं, सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति भौतिक ( सांसारिक) उपलब्धियों की लालसा रखता है और उन्हीं की पूर्ति हेतु आजीवन प्रयास करता है।
अध्यात्म-विद्या के मनीषियों ने समाज के इस पक्ष को भी गम्भीरता से देखा था। अतः जहाँ उन्होंने मोक्षकामी साधकों के लिए षट्चक्र भेदन का विधान किया जप तप और योग-साधना के विभिन्न नियम बनाये, वहीं सांसारिक जनों की आव श्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए उनके लिए 'पट्कर्म' की योजना की । इन पटू कर्मों के अन्तर्गत संसारी जन की प्राय: समस्त समस्याओं की पूर्ति हो जाती है। षट्कर्मों का वर्गीकरण इस प्रकार है
1. शान्ति कर्म
2. वश्य कर्म
3. स्तम्भन कर्म
4. उच्चाटन कर्म
5. मारण कर्म
6. विद्वेषण कर्म
यह आदिकाल की व्यवस्था थी। आगे चलकर कुछ आचार्यों ने दो अन्य कर्म भी निर्धारित किये - मोहन कर्म और आकर्षण-कर्म पर यह केवल विस्तार भेद हैं, ये दोनों कर्म वश्य-कर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। कुछ समय पश्चात साधना पद्धतियों के विकास के साथ-साथ उनकी व् भी नये और विकसित परिवेश में की जाने लगी। सूक्ष्म को विस्तार देकर उसे जन सामान्य के लिए सरल-सुबोध बनाने के प्रयास आरम्भ हुए उन्हीं प्रयासों के अन्तर्गत कालान्तर में कुछ मनीषियों ने उपरोक्त षट्कर्मों को दस-कर्मों के रूप में व्याख्यायित करते हुए उनकी साधना को व्यापक और विस्तृत रूप दिया। उनके द्वारा परिकल्पित दस-कर्म ये हैं ।
शान्ति कर्म
- स्तम्भन कर्म
- मोहन-कर्म
- आकर्षण कर्म
- जृम्मण-कर्म
- विद्वेषण-कर्म
- उच्चाटन कर्म
- वशीकरण-कर्म
- माण कर्म
- पोष्टिक कमं
सूक्ष्मता से विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ये दसों कर्म पूर्वोक्त पट् कमों के ही विकसित रूप हैं। पाठकों की सुविधा के लिए उनका पृथक् पृथक् परि चय और विवेचन प्रासङ्गिक होगा ।
शान्ति-कर्म
किसी भी कल्याणकारी उद्देश्य से की गई साधना, जो शान्तिप्रद हो, जिससे किसी का अमङ्गल न हो, शान्ति कर्म कहलाती है। इस साधना का मूल प्रयोजन रोग-विकार निवारण, ग्रह क्लेश से मुक्ति, उपसर्ग शमन, श्राम-मोचन, दुख-दारिद्रय का विनाश, स्वहित अथवा लोकहित शिवम् सकल्प की पूर्ति अथवा ऐसा ही कोई अन्य लक्ष्य होता है। समस्त साधनाओं में यह सर्वश्रेष्ठ कही गई है कारण कि इसके परिणाम स्वरूप किसी अमङ्गल को उत्पत्ति नहीं होती ।
स्तम्भन-कर्म
स्तम्मन का सामान्य अर्थ है-अचल अथवा निष्क्रिय कर देना। स्तम्भूत का अर्थ है - खम्भा । खम्भा चलता नहीं, कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिश नहीं करता, अचल स्थिर एक जगह खड़ा रहता है। स्तम्भन से आशय है, खम्भे की तरह अचल कर देना गत्यावरोध और निष्क्रियता उत्पन्न करके अभीष्ट व्यक्ति, वस्तु अथवा जीव-जन्तु से रक्षा के लिए, और कभी-कभी उसे हानि पहुँचाने के लिए सम्मान कार्य किया जाता है।
मन्त्र-विज्ञान के अन्तर्गत स्तम्भन-कर्म का भी ऐसा ही उद्देश्य रहता है। अग्नि, जल, वायु वाहन व्यक्ति पशु अथवा शस्त्र को निष्क्रिय करने के लिए मन के प्रयोग किये जाते हैं लगी हुई आग, बाइ-वृष्टि का जल-वेग, चक्रवात, आक्रमण, आघात, दस्यु दल, शत्रुवर्ग, अराजक तत्व, भागे जा रहे पालतू पशु, आक्र मण के लिए सन्नद्ध हिंसक पशु, अपहरण कर रहे वाहन आदि को रोकने, अचल बनाने के लिए मन्त्राचार्यों ने ऐसे मन्त्रों और क्रियाओं का आविष्कार किया था, जिनके प्रयोग से उपरोक्त कार्य सरलता से सम्पन्न हो जाते थे। निश्चय ही यह एक कौतू हलपूर्ण चमत्कार है कि केवल मानसिक शक्ति के प्रयोग से ही ऐसे असम्भव प्रायः कार्य पूरे हो जाते हैं।
मोहन - कर्म
मन्त्र-साधना के माध्यम से किसी को मुग्ध, बेसुध, आत्म-विस्मृत कर देना मोहन-कर्म कहलाता है। मोहन अथवा सम्मोहन, दोनों एक ही हैं। इस प्रयोग के द्वारा किसी भी लौकिक प्राणी- मनुष्य, पशु, पक्षी को मोहित किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म और मन्त्र-शास्त्र की यह अति प्राचीन विद्या है। कालान्तर में इसका व्यापक प्रचार हुआ और कुछ नये आयाम भी खोजे गये। पश्चिमी देशों में भी इसके प्रति जिज्ञासा बढ़ी। फलतः डॉ० मेस्मर जैसे लोगों ने इसे और विकसित किया तथा कुछ नये सिद्धान्तों की स्थापना की। हालाँकि मेस्मरिज्म और हिप्नो टिज्म जैसी विद्याएं अति प्रसिद्ध होकर भी एक संकुचित क्षेत्र में प्रभाव डालती हैं, जबकि मन्त्र विज्ञान द्वारा सम्मोहन-क्रिया का प्रभाव विस्तार अद्भुत है।
उच्चाटन - कर्म
तन्मयता भङ्ग होना, जी-उचटना, विरक्ति उत्पन्न होना-यही उच्चाटन है। उच्चाटन के लक्षणों में अस्त-व्यस्तता, अनर्गल प्रलाप मानसिक अस्थिरता, भय और भ्रम की मनोदशा, आत आशङ्का दुष्कल्पना, असङ्गत और असम्बद्ध कार्य-कलाप आदि की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है। उच्चाटन के दो कारक होते हैं- प्रकृत्या अर्थात् कोई मानसिक रोग और व्यक्तिकृत अर्थात् किसी व्यक्ति द्वारा जब किसी उपाय का प्रयोग करके मान्त्रिक साधना के माध्यम से उपयुक्त किसी विशेष मनो दशा में पहुँचा दिया जाय, तो उसे उच्चाटन कर्म कहते हैं। उच्चाटन का प्रयोग सम्बन्धित व्यक्ति में विराग, विरोध, वितृष्णा और तटस्थता अथवा बहिष्कार की भावना इतनी प्रबल कर देता है कि वह वैचारिक अथवा क्रियात्मक रूप में किसी भी बिन्दु पर स्थिर नहीं रह पाता। संयम और विश्वास के अभाव में वह स्वयं के प्रति भी शालू हो उठता है। इस प्रकार उच्चाटन प्रभाव की अन्तिम परिणति यह होती है कि उससे ग्रस्त व्यक्ति विक्षिप्त होकर इधर-उधर मारा फिरता है, अनेक प्रकार के कष्ट पाता है और अन्ततः उन्हीं कष्टों में उसकी मृत्यु हो जाती है।
वशीकरण-कर्म
इस क्रिया का अर्थ इसके शब्दों से ही हो जाता है- वश में करना विज्ञान की किसी भी पद्धति का प्रयोग करके जब सम्मोहन प्रभाव को इतना अधिक सक्रिय बना दिया जाय कि उससे प्रभावित प्राणी अपने 'स्व' को, अपनी अस्मिता को सर्वथा भुलाकर साधक से वशीभूत हो जाय, उसके संकेतों-निर्देशों के अनुसार आच रण करने लगे, तो ऐसी स्थिति को वशीकरण कहते हैं।
आकर्षण - कर्म
मोहन, वशीकरण और आकर्षण वस्तुतः एक ही रेखा के तीन बिन्दु हैं। इन तीनों में नाम मात्र का भेद है। मोहन में जहाँ अनुकूल बनाने का भाव प्रमुख है, वहाँ वशीकरण में अनुकूल को दास बनाने, उस पर पूर्णतया अधिकार कर लेने का भाव निहित है। इसी प्रकार आकर्षण में केवल किसी की मानसिकता को अपनी ओर उन्मुख करने का भाव रहता है। आकर्षण का मूल बिन्दु 'कर्षण' है, जिसका अर्थ होता है— खींचना। मानसिक रूप से किसी को खींचने का भाव ही आकर्षण कर्म का जनक है, राह चलते समय हम किसी दूकान में लगे सुन्दर चित्र को देखकर ठिठक जाते हैं और उस चित्र को बरबस, देखने लगते हैं। ऐसा क्यों ? वस्तुतः उस चित्र में आकर्षण शक्ति है, वही राह चलते लोगों की मानसिकता को प्रभावित करके अपनी ओर खींचती है, फलतः व्यक्ति चलना बन्द कर ठहर जाता है और परम-तन्मय होकर चित्र की ओर देखने लगता है । मान्त्रिक प्रयोगों का प्रभाव चित्र शक्ति की अपेक्षा कई गुना अधिक और स्थायी होता है। आकर्षण कर्म के प्रभाव से, सम्बन्धित व्यक्ति, साधक की इच्छानुसार उसके आकर्षण - पाश में बंधा रहता है।
जृम्भण-कर्म
किन्हीं दो अथवा अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक सद्भावनाओं को समाप्त करके, उनमें – फूट, वैर-विरोध अविश्वास, विद्रोह और शत्रुता अथवा पार्थक्य उत्पन्न करने के उद्देश्य से की गई साधना, जृम्भण कर्म कहलाती है। इस कार्य की पूर्ति हेतु कई ऐसे उपायों का वर्णन मिलता है, जिनका व्यवहारिक प्रयोग साधक की इच्छानुसार अभीष्ट व्यक्ति में वैमनस्य, विरोध, अविश्वास और शत्रुता उत्पन्न करके, उनकी शान्ति, शक्ति और एकता को नष्ट कर देता है।
जुम्माण जैसा प्रभाव ही विद्वेषण कर्म का होता है। अतः उसका विवरण अलग से नहीं दिया है।
मारण कर्म
जिस साधना के प्रभाव से अभीष्ट प्राणी की मृत्यु हो जाय, उसे मारण कर्म कहते हैं। जिस प्रकार विथ अथवा शस्त्र के प्रहार से किसी की जीवन-शक्ति नष्टः की जा सकती है, उसी प्रकार मन्त्र-प्रयोगों के द्वारा भी किसी का प्राण-अपहरण किया जा सकता है। स्पष्ट रूप से यह हत्या की श्रेणी में आता है। इसी कारण इसका प्रयोग वर्जित और निन्दित कहा जाता है।
पौष्टिक-कर्म
जब साधक किसी का अहित अमङ्गल न करके, मात्र कल्याण के लिए (स्वयं अपने या किसी अन्य के लिए ) धन-धान्य, सुख-समृद्धि, रोग मुक्ति अथवा भक्ति शान्ति लाभ के लिए कोई साधना करता है तो उसे पौष्टिक-कर्म कहते हैं। यह साधना सदैव श्रेष्ठ मानी जाती है ।
निष्कर्ष
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि मन्त्र-साधना का मुख्य लक्ष्य आध्यात्मिक सिद्धि की प्राप्ति ( ज्ञान, भक्ति, मोक्ष ) रहा है, तथापि इसके प्रणेतालों ने लौकिक जीवन की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने संसारी-जनों के लिए, लोक हित के लिए भी उचित मार्ग दर्शाये हैं। दैहिक दृष्टि से भौतिक सिद्धियों की प्राप्ति और उपयोग के साधन भी बताये हैं। रागी और विरागी, सभी के लिए मन्त्र साधना के लाभ सुलभ हैं। यथा रुचि कोई किसी भी प्रकार की साधना कर सकता है। स्मरण रहे कि उस युग में आज की जैसी कुत्सा नहीं थी, अतः हिंसा अपराध से परे, प्रायः समस्त साधक लोक कल्याण की भावना से ही तपश्चर्या करते थे, व्यक्ति गत स्वार्थ से वे मुक्त थे ।
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